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________________ अबहुत स्वयम्भूस्तोत्र उन्हें अपने आत्मनगरसे निकाल बाहर करना चाहिये अथवा यों कहिये कि क्रोधादिरूप न परिणमनेका दृढ संकल्प करके उनके बहिष्कारका प्रयत्न करना चाहिये । इसीको अन्तरंग परिग्रहका त्याग कहते हैं । अन्तरंग परिग्रहको जिसके द्वारा पोषण मिलता है वह बाह्य परिग्रह है और उसमें संसार की सभी कुछ सम्पत्ति और विभूति शामिल है। इस बाह्य सम्पत्ति एवं विभूतिके सम्पर्क अधिक रहने से रागादिक की उत्पत्ति होती है, ममत्व - परिणामको अवसर मिलता है, रक्षण वर्द्धन और विघटनादि-सम्बन्धी अनेक प्रकारकी चिन्ताएँ तथा आकुलताएँ घेरे रहती हैं. भय बना रहता है, जिन सबके प्रतिकार में काफी शक्ति लगानी पड़ती है तथा आरम्भ जैसे सावद्य कर्म करने पड़ते हैं और इस तरह उक्त सम्पत्ति एवं विभूतिका मोह बढ़ता रहता है । इसीसे इस सम्पत्ति एवं विभूतिको बाह्य परिग्रह कहा गया है । मोहके बढ़नेका निमित्त होनेसे इन बाह्य पदार्थोंके साथ अधिक सम्पर्क नहीं बढ़ाना चाहिये, आवश्यकता से अधिक इनका संचय नहीं करना चाहिये । आवश्यकताओं को भी बराबर घटाते रहना चाहिये। आवश्यकताओंकी वृद्धि बन्धनोंकी ही वृद्धि है ऐसा समझना चाहिये और वश्कतानुसार जिन बाह्य चेतन-अचेतन पदार्थोंके साथ सम्पर्क रखना पड़े उनमें भी आसक्तिका भाव तथा ममत्व-परिगाम नहीं रखना चाहिये । यही सब बाह्य परिग्रहका एकदेश और सर्वदेश त्याग है । एकदेश त्याग गृहस्थियोंके लिये और सर्वदेश त्याग मुनियोंके लिये होता है । इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंके पूर्ण त्याग विना वह समाधि नहीं बनती जिसमें चारों घातिया कर्मप्रकृतियों को भस्म किया C 2
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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