SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७३. AAAM प्रस्तावना www...mor...nxxx. करनेके लिये 'अनेकान्त' का आश्रय लेना परम आवश्यक है। अनेकान्त ही इस महारोगकी अमोघ औषधि है। अनेकान्त ही इस दृष्टिविकारके जनक तिमिर-जालको छेदनेकी पैनी छैनी है। जब दृष्टिमें अनेकान्त समाता है-अनेकान्तमय अंजनादिक अपना काम करता है तब सब कुछ ठीक ठीक नज़र आने लगता है। दृष्टिमें अनेकान्तके संस्कार विना जो कुछ नज़र आता है वह सब प्रायः मिथ्या, भ्रमरूप तथा अवास्तविक होता है। इसीसे प्रस्तुत ग्रन्थमें दृष्टिविकारको मिटानेके लिये अनेकान्तकी खास तौरसे योजना की गई है-उसके स्वरूपादिकको स्पष्ट करके बतलाया गया है, जिससे उसके ग्रहण तथा उपयोगादिकमें सुविधा हो सके । साथ ही, यह स्पष्ट घोषणा की गई है कि जिस दृष्टिका आत्मा अनेकान्त है-जो दृष्टि अनेकान्तसे संस्कारित अथवा युक्त है-बह सती संच्ची अथवा समीचीन दृष्टि है, उसीके द्वारा सत्यका दर्शन होता है, और जो दृष्टि अनेकन्तात्मक न हो कर सर्वथा एकान्तात्मक है वह असती झूठी अथवा मिथ्यादृष्टि है और इसलिये उसके द्वारा सत्यका दर्शन न होकर असत्यका ही दर्शन होता है। वस्तुतत्त्वके अनेकान्तात्मक होनेसे अनेकान्तके बिना एकान्तकी स्वरूपप्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती। अतः सबसे पहले दृष्टिविकारपर प्रहार कर उसका सुधार करना चाहिये और तदनन्तर मोहके दूसरे अंगोंपर, जिन्हें दृष्टि-विकारके कारण अभी तक अपना सगा समझकर अपना रक्खा था, प्रतिपक्ष भावनाओं के बलपर अधिकार करना चाहिये-उनसे शत्रु जैसा व्यवहार कर १ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्व सृपोक्तं स्यान्तदयुक्तं स्वघाततः ।।८।।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy