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प्रस्तावना
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जाता है और न उस अहिंसाकी सिद्धि ही होती है जिसे 'परमब्रह्म' बतलाया गया है। अतः समाधि और अहिंसा परमब्रह्म दोनोंकी मिद्धिक लिये-दोनों प्रकारके परिग्रहोंका. जिन्हें 'ग्रन्थ' नामसे उल्लेखित किया जाता है. त्याग करके नैर्ग्रन्थ्य-गुण अथवा अपरिग्रह-व्रतको अपनानेकी बड़ी जरूरत होती है। इसी भावको निम्न दो कारिकाओं में व्यक्त किया गया है- .. गुणाभिनन्दादभिनन्दनो भवान्दयावधूं क्षान्तिसखीमशिश्रियत्। . समाधितंत्रस्तदुपोपपत्तये द्वयेन नैनन्थ्यगुणेन चाऽयुजत् ।।१६।। अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ।
१ इसी बातको लेकर विप्रवंशाग्रणी श्रीपात्रकेशरी स्वामीने, जो स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम'को प्राप्त करके जैनधर्ममें दीक्षित हुए थे, अपने स्तोत्रके निम्न पद्यमें परिग्रही जीवोंकी दशाका कुछ दिग्दर्शन कगते हुए, लिखा है कि ऐसे परिग्रहवशवति कलुषात्माओंके परम शुक्लरूप सद्ध्यानता बनती कहां है' ?
परिग्रहवतां सतां भयमवश्यमापद्यते. प्रकोप-परिहिंसने च परुषाऽनृत-व्याहृती । ममत्वमथ चोरतः स्वमनसश्च विभ्रान्तता. कुतो हि कलुषात्मनां परमशुक्लसद्ध्यानता ॥४२॥ २ उभय-परिग्रह-वर्जनमाचार्याः सूचयन्त्यहिंसेति द्विविध-परिग्रह-वहनं हिंसेति जिन-प्रवचनज्ञाः ॥११८।।
-पुरुषार्थसिद्धय पाय, अमृतचन्द्रसूरिः