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प्रस्तावना
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अप्रादुभूतिको कहते हैं । जब आत्मामें रागादि-दोषोंका समूलनाश होकर उसकी विभाव-परिणति मिट जाती है और अपने शुद्धस्वरूपमें चर्या होने लगती है तभी उसमें अहिंसाकी पूर्णप्रतिष्ठा कही जाती है, और इसलिये शुद्धात्म-चर्यारूप अहिसा ही परमब्रह्म है-किसी व्यक्ति विशेषका नाम ब्रह्म तथा परमब्रह्म नहीं है । इसीसे जो ब्रह्मनिष्ठ होता है वह आत्मलक्ष्मीकी सम्प्राप्तिके साथ साथ 'सम-मित्र-शत्रु' होता तथा 'कषाय-दोषोंसे रहित होता है; जैसा कि ग्रन्थके निम्न वाक्यसे प्रकट है:सब्रह्मनिष्ठः सम-मित्र-शत्रु-विद्या-विनिर्वान्त-कपायदोषः । लब्धात्मलक्ष्मीरजितोऽजितात्मा जिनश्रियं मे भगवान्निधत्ताम्।। ___ यहाँ ब्रह्मनिष्ठ अजित भगवानसे 'जिनश्री'की जो प्रार्थना की गई है उससे स्पष्ट है कि 'ब्रह्म' और 'जिन' एक ही हैं, और इसलिये जो 'जिनश्री' है वही 'ब्रह्मश्री' है-दोनोंमें तात्त्विकदृष्टिसे कोई अन्तर नहीं है। यदि अन्तर होता तो ब्रह्मनिष्ठसे ब्रह्मनीकी प्रार्थना की जाती, न कि जिनश्रीकी । अन्यत्र भी, वृषभतीर्थङ्करके स्तवन (४) में जहां 'ब्रह्मपद' का उल्लेख है वहां उसे 'जिनपद' के अभिप्रायसे सर्वथा भिन्न न समझना चाहिये । वहां अगले ही पद्य (५) में उन्हें स्पष्टतया 'जिन' रूपसे उल्लेखित भी किया है। दोनों पदोंमें थोड़ासा दृष्टिभेद है-'जिन' • पद कर्मके निषेधकी दृष्टिको लिये हुए है और 'ब्रह्म' पद स्वरूपमें अवस्थिति अथवा प्रवृत्तिकी दृष्टिको प्रधान किये हुए
१. अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हिन्सेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥४४॥
पुरुषार्थसिद्धथ पाय, अमृतचन्द्रः।