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स्वयम्भूस्तोत्र ज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य नामकी चारों शक्तियां पूर्णतः विकसित हो जाती हैं और सबको देखने-जाननेके साथ साथ पूर्ण-सुख-शान्तिका अनुभव होने लगता है। ये शक्तियाँ ही आत्माकी श्री हैं, लक्ष्मी हैं, शोभा हैं। और यह विकास उसी प्रकारका होता है जिस प्रकारका कि सुवर्ण-पाषाणसे सुवर्णका होता है। पाषाण-स्थित सुवर्ण जिस तरह अग्नि-प्रयोगादिके योग्य साधनोंको पाकर किट-कालिमादि पाषाणमलसे अलग होता हुआ अपने शुद्ध सुवर्णरूपमें परिणत हो जाता है - उसी तरह यह संसारी जीव उक्त कर्ममलके भस्म होकर पृथक होजानेपर अपने शुद्धात्मस्वरूपमें परिणत हो जाता है। घातिकर्ममलके अभावके साथ प्रादुर्भूत होनेवाले इस विकासका नाम ही 'आर्हन्त्यपद' है जो बड़ा ही अचिन्त्य है, अद्भुत है और त्रिलोककी पूजाके अतिशय (परमप्रकर्ष ) का स्थान है (१३३) । इसीको जिनपद, कैवल्यपद तथा ब्रह्मपदादि नामोंसे उल्लेखित किया जाता है।
ब्रह्मपद आत्माकी परम-विशुद्ध अवस्थाके मिवा दुसरी कोई चीज़ नहीं है। स्वामी समन्तभद्रने प्रस्तुत ग्रन्थमें 'अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं' (११६) इस वाक्यके द्वारा अहिंसाको 'परमब्रह्म' बतलाया है और यह ठीक ही है; क्योंकि अहिंसा आत्मामें राग-द्वेष-काम-क्रोधादि दोषोंकी निवृत्ति अथवा . १ सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः प्रगुण-गुणगणोच्छादिदोषापहारात् । योग्योपादान-युक्त्या दृषद् इह यथा हेमभावोपलब्धिः ॥१॥
-पूज्यपाद-सिद्धभक्ति