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स्वयम्भूस्तात्र
है । कर्मके निषेधविना स्वरूपमें प्रवृत्ति नहीं बनती और स्वरूपमें प्रवृत्तिके विना कर्मका निषेध कोई अर्थ नहीं रखता। विधि और निषेध दोनोंमें परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध है-एकके विना दुसरेका अस्तित्व ही नहीं बनता, यह बात प्रस्तुत ग्रन्थमें खूब स्पष्ट करके समझाई गई है । अतः संज्ञा अथवा शब्द-भेदके कारण सर्वथा भेदकी कल्पना करना न्याय-संगत नहीं है । अस्तु ।
जब घाति-कर्ममल जलकर अथवा शक्तिहीन होकर आत्मासे बिल्कुल अलग हो जाता है तब शेष रहे चारों अघातियाकर्म, जो पहले ही आत्माके स्वरूपको घातनेमें समर्थ नहीं थे, पृष्ठबलके न रहनेपर और भी अधिक आघातिया हो जाते एवं निर्बल पड़ जाते हैं और विकसित आत्माके सुखोपभोग एव ज्ञानादिककी प्रवृत्तिमें जरा भी अडचन नहीं डालते । उनके द्वारा निर्मित, स्थित और संचालित शरीर भी अपने बाह्यकरणस्पर्शनादिक इन्द्रियों और अन्तःकरण-मनके साथ उसमें कोई बाधा उपस्थिन नहीं करता और न अपने उभयकरणोंके द्वारा कोई उपकार ही सम्पन्न करता है। उन अघातिया प्रकृतियोंका नाश उसी पर्यायमें अवश्यंभावी होता है-आयुकर्मकी स्थिति पूरी होते होते अथवा पूरी होनेके साथ साथ ही वेदनीय, नाम और गोत्र कर्मकी प्रकृतियाँ भी नष्ट हो जाती हैं अथवा योग-निरोधादिके द्वारा सहजमें ही नष्ट कर दी जाती हैं। और इसलिये जो घातियाकर्म प्रकृतियोंका नाश कर आत्मलक्ष्मीको प्राप्त , होता है उसका आत्मविकास प्रायः पूरा ही हो जाता है, वह
१. जैसाकि ग्रन्थगत स्वामीसमन्तभद्रके निम्न वाक्यसे प्रकट हैबहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नाऽथकृत । नाथ ! युगपदखिलं च सदा त्वमिदं तलामलकवद्विवेदिथ ॥१२६।