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________________ प्रस्तावना ६७. दृष्टि, संवित् एवं उपेक्षा-जैसे शब्दोंके द्वारा किया गया है (६०)', जिनका आशय सम्यग्दर्शनादिकसे ही है। इन तीनोंकी एकाग्रता जब आत्माकी ओर होती है-आत्माका ही दर्शन, आत्माका ही ज्ञान, आत्मामें ही रमण होने लगता है और परमें आसक्ति छूटकर उपेक्षाभाव आजाता है तब यह अग्नि सातिशयरूपमें प्रज्वलित हो उठती है और कर्म-प्रकृतियोंको सविशेषरूपसे भस्म, करने लगती हैं । यह भस्म-क्रिया इन त्रिरत्न किरणोंकी एकाग्रतासे उसी प्रकार सम्पन्न होती है जिस प्रकार कि सूर्यरश्मियोंको शीशे या काँच-विशेष में एकाग्र कर शरीरके किसी अङ्ग अथवा वस्त्रादिक पर डाला जाता है तो उनसे वह अङ्गादिक जलने लगता है । सचमुच एकाग्रतामें बड़ी शक्ति है । इधर-उधर बिखरी हुई तथा भिन्नाग्रमुख शक्तियां वह काम नहीं देतीं जा कि एकत्र और एकाग्र (एकमुख ) होकर देती हैं। चिन्ताके एकाग्रनिरोधका नाम ही ध्यान तथा समाधि है। आत्म-विषयमें यह चिन्ता जितनी एकाग्र होती जाती है सिद्धि अथवा स्वात्मोपलब्धि भी उतनी ही समोप आती जाती है। जिस समय इस एकाग्रतासे सम्पन्न एवं प्रज्वलित योगानलमें कर्मो की चारों मूल कटुक प्रकृतियाँ अपनी उत्तर और उत्तरोत्तर शाखा-प्रकृतियोंके साथ भस्म हो जाती हैं अथवा यों कहिए कि सारा घाति-कर्ममल जलकर आत्मासे अलग हो जाता है उस समय आत्मा जातवीर्य (परम-शक्तिसम्पन्न ) होता है-उसकी अनन्त दर्शन, अनन्त ५ 'दृष्टि-संविदुपेक्षाऽस्त्रैस्त्वया धीर पराजितः' इस वाक्यके द्वारा इन्हें 'अस्त्र' भी लिखा है, जो आग्नेयास्त्र हो सकते हैं अथवा कर्मछेदनकी शक्तिसे सम्पन्न होनेके कारण खड्गादि जैसे अायुध भी हो सकते हैं।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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