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________________ स्वयम्भू स्तोत्र स्त्र- दोष- मूलं स्व-समाधि- तेजसा निनाय यो निर्दयभस्मसात्क्रियाम् (४) । कर्म-कक्षमदत्तपोऽग्निभिः (७१) । ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृतान्तचक्रम् (७९) । यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्निर्थ्यानमनन्तं दुरितमधाक्षीत् (११० ) । परमयोग - दहन - हुत- कल्मषेन्धनः (१२१ ) यह योगाग्नि क्या वस्तु है ? इसका उत्तर ग्रन्थके निम्न वाक्यपरसे ही यह फलित होता है कि योग वह सातिशय अग्नि है जो त्नत्रयकी एकाग्रता के योगसे सम्पन्न होती है और जिसमें सबसे पहले कर्मों की कटुक प्रकृतियों की आहुति दी जाती है. " ૬૬ हुत्वा स्व-कम-कुटुक प्रकृतीश्चतस्रो रत्नत्रयातिशय- तेजसि - जात - वीर्यः । ( ८४ ) 'रत्नत्रय' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रको कहते हैं; जैसा कि स्वमी समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड' ग्रन्थसे प्रकट है । इस ग्रन्थ में भी उसके तीनों अङ्गका उल्लेख है और वह "समाधि चक्रेण पुनर्जिगाय महोदयो दुर्जय मोह - चक्रम (७७) । ” "स्त्र - योग - निस्त्रिंश - निशात धारया निशात्य यो दुर्जय मोह - विद्विषम् (१३३) " एक स्थानपर समाधिको कर्मरोग-निर्मूलन के लिये 'भैषज्य' (अमोघ - औषधि) की भी उपमा दी गई है'विशेषणं मन्मथ-दुर्मंदाऽऽमयं समाधि भैषज्य-गुणैर्व्यलीनयत् (६७)'
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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