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________________ • ६४ स्वयम्भूस्तोत्र स्याद्वादिनो नाथ ! तव व युक्तं नैकान्तदृष्टस्त्वमतोऽसि शास्ता ॥१४॥ और यह बात बिल्कुल ठीक है। इसको विशेष रूपमें सुमति-जिन आदिके स्तवनों में पाये जानेवाले तत्त्वज्ञानसे, जिसे ऊपर ज्ञानयोगमें उद्धृत किया गया है, और स्वामी समन्तभद्रके देवागम तथा युक्त्यनुशासन-जैसे ग्रन्थोंके अध्ययनसे और दूसरे भी जैनागमोंके स्वाध्यायसे भले प्रकार अनुभूत किया जा सकता - है । अस्तु। प्रस्तुत ग्रन्थमें बन्धनको 'अचेतनकृत' (१७) बतलाया है और उस अचेतनको जिससे चेतन ( जीव ) बँधा है 'कर्म' (७१, ८४) कहा है, 'कृतान्त' (७६) नाम भी दिया है और दुरित ( १०५, ११०), दुरिताञ्जन (५७), दुरितमल (११५), कल्मष (१२१) तथा 'दोषमूल' (४) जैसे नामोंसे भी उल्लेखित किया है। वह कर्म अथवा दुरितमल आठ प्रकारका (११५) है-आठ उसको मूल प्रकृतियाँ हैं, जिनके नाम हैं-१ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ मोहनीय ( मोह ), ४ अन्तराय, ५ वेदनीय, ६ नाम, ७ गोत्र, ८ आयु। इनमेंसे प्रथम चार प्रकृतियाँ कटुक (८४) हैं-बड़ी ही कड़वी हैं, आत्माके स्वरूपको घात करनेवाली हैं और इसलिये उन्हें घातिया' कहा जाता है, शेष चार प्रकृतियां 'अघातिया' कहलाती हैं। इन आठों जड़ कर्ममलोंके अनादि सम्बन्धसे यह जीवात्मा मलिन, अपवित्र, कलंकित, विकृत और स्वभावसे च्युत होकर विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है; अज्ञान, अहंकार, राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभादिक , असंख्य-अनन्त दोषोंका क्रीडास्थल बना हुआ है, जो तरह तरहके नाच नचा रहे हैं; और इन दोषोंके नित्यके ताण्डव एवं
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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