________________
स्वयम्भूस्तोत्र mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm इच्छाके बाद जब प्रयत्न चलता है और तदनुकूल आचरणादिके द्वारा उन गुणोंको आत्मामें विकसित किया जाता है तो वह कर्मयोगका विषय बन जाता है। - इस प्रकार ग्रन्थगत चौवीस स्तवनों में अलग-अलग रूपसे जो ज्ञानयोग-विषयक तत्त्वज्ञान भरा हुआ है वह सब अहंदगुणोंकी तरह वीरजिनेन्द्रका तत्त्वज्ञान है, ऐसा समझना चाहिए। वीरवाणीमें ही वह प्रकट हुआ है और वीरका ही प्रवचनतीर्थ इस समय प्रवर्तित है। इससे वीर-शासन और वीरके तत्वज्ञानकी कितनी ही सार बातोंका परिचय सामने आजाता है, जिनसे उनकी महत्ताको भले प्रकार आँका जा सकता है, साथ ही आत्मविकासकी तय्यारीके लिए एक समुचित आधार भी मिलजाता है। ____ वस्तुतः ज्ञानयोग अक्तियोग और कर्मयोग दोनोंमें सहायक है
और सामान्य-विशेषादिकी दृष्टिसे कभी उनका साधक होता है तो कभी उनके द्वारा साध्य भी बन जाता है। जैसे सामान्यज्ञानसे भक्तियोगादिक यदि प्रारम्भ होता है तो विशेषज्ञानका उनके द्वारा . उपार्जन भी किया जाता है। ऐसी ही स्थिति दूसरे योगोंकी है,
और इसीसे एकको दूसरे योगके साथ सम्बन्धित बतलाया गया है-मुख्य-गौणकी व्यस्थासे ही उनका व्यवहार चलता है । एक योग जिस समय मुख्य होता है उस समय दूसरे योग गौण होते हैं-उन्हें सर्वथा छोड़ा नहीं जाता। तीनोंके पस्पर सहयोगसे ही आत्माका पूर्ण विकास सधता अथवा सिद्ध होता है। -कम-योग " मन-वचन-काय-सम्बन्धी जिस क्रियाकी प्रवृत्ति अथवा. निवृत्तिसे आत्म-विकास सधता है उसके लिये तदनुरूप जो भी पुरुषार्थ किया जाता है, उसे 'कर्मयोग' कहते हैं। और इसलिये