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________________ प्रस्तावना ५ - कर्मयोग दो प्रकारका है- - एक क्रियाकी निवृत्तिरूप पुरुषार्थको लिये हुए और दूसरा क्रियाकी प्रवृत्तिरूप पुरुषार्थको लिये हुए । 'निवृत्ति प्रधान कर्मयोग में मन-वचन-कायमेंसे किसी की भी क्रियाका, तीनोंकी क्रियाका अथवा अशुभ क्रियांका निरोध होता है । और प्रवृत्तिप्रधान कर्मयोग में शुभ कर्मों में त्रियोग - क्रियाकी प्रवृत्ति होती है - अशुभ नहीं; क्योंकि अशुभ कर्म विकास में साधक न होकर बाधक होते हैं । राग-द्वेषादिसे रहित शुद्धभावरूप प्रवृत्ति भी इसके अन्तर्गत है । सच पूछिये तो प्रवृत्ति विना निवृत्तिके और निवृत्तिविना प्रवृत्तिके होती ही नहीं - एकका दूसरेके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । दोनों मुख्य गौणकी व्यवस्थाको लिये हुए हैं । निवृत्तियोग में प्रवृत्तिकी और प्रवृत्तियोग में निवृत्तिकी गौरता है । सर्वथा प्रवृत्ति या सर्वथा निवृत्तिका एकान्त नहीं बनता । और इसलिये ज्ञानयोग में जो बातें किसी-न-किसी रूपसे विधेय ठहराई गई हैं, उचित तथा आवश्यक बतलाई गई. हैं अथवा जिनका किसी भी तीर्थङ्करके द्वारा स्व-विकास के लिये किया जाना विहित हुआ है उन सबका विधान एवं अनुष्ठान कर्मयोग में गर्भित है । इसी तरह जिन बातोंको दोषादिक के रूप में बतलाया गया है, अविधेय तथा अकरणीय सूचित किया गया है अथवा किसी भी तीर्थङ्कर के द्वारा जिनका छोड़ना-तजना या उनसे विरक्ति धारण करना आदि कहा गया है उन सबका त्याग एवं परिहार भी कर्मयोग में दाखिल ( शामिल ) है । और इसलिये कर्मयोग-सम्बन्धी उन सब बातोंको पूर्वोल्लिखित ज्ञानयोगसे ही जान लेना और समझ लेना चाहिये । उदाहरण के तौरपर प्रथम - जिन स्तवन के ज्ञानयोग में ममत्वसे विरक्त होना, वधू - वित्तादि परिग्रहका त्याग करके जिन दोक्षा लेना, उपसर्गपरीषहों का समभाव से सहना और सद्व्रत - नियमोंसे चलायमान
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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