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प्रस्तावना mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm (प्रत्यक्ष ) और इष्ट (आगमादिक ) प्रमाणोंके साथ उसका कोई विरोध नहीं है। 'स्यात्' शब्द-पूर्वक कथनसे रहित जो सर्वथा एकान्तवाद है वह निर्दोष प्रवचन नहीं है क्योंकि दृष्ट और इष्ट दोनोंके विरोधको लिए हुए है-प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित ही नहीं किन्तु अपने इष्ट अभिमतको भी बाधा पहुँचाता है और उसे किसी तरह भी सिद्ध एवं प्रमाणित करने में समर्थ नहीं होता (१३८)।
वीरजिनेन्द्रका स्याद्वदरूप शासन (प्रवचन-तीर्थ) श्री- . सम्पन्न है-हेयोपादेय-तत्त्व-परिज्ञान-लक्षण-लक्ष्मीसे विभूषित है-निष्कपट यम (अहिंसादि महाप्रतोंके अनुष्ठान ) और दम ( इन्द्रिय-जय तथा कषाय-निग्रह ) की शिक्षाको लिए हुए है, नयोंके भङ्गरूप अथवा भक्तिरूप अलङ्कारोंसे अलंकृत है, यथार्थवादिता एवं परहित प्रतिहादनतादिक बहुगुण-सम्पत्ति से युक्त है: पूर्ण है और सब ओरसे भद्ररूप है-कल्याणकारी है (१४१, . (१४३)।
तत्त्वज्ञान-विषयक ज्ञानयोगकी इन सब बातोंके अलावा २४ स्तवनों में तीर्थङ्कर अर्हन्तोंके गुणोंका जो परिचय पाया जाता है और जिसे प्राय: अर्हद्विशेषण-पदोंमें समाविष्ट किया गया है वह सब भी ज्ञानयोगसे सन्बन्ध रखता है। उन अहँद्गुणोंका तात्त्विक परिचय प्राप्त करना, उन्हें आत्मगुण समझना और अपने आत्मामें उनके विकासको शक्य जानना यह सब ज्ञानाभ्यास भी ज्ञानयोगसे भिन्न नहीं है। भक्तियोग-द्वारा उन गुणोंमें अनुराग बढाया जाता है और उनकी सम्प्राप्तिकी रुचि एवं इच्छाको अपने आत्मामें एक पूर्ण आदर्शको सामने रखकर जागृत और पुष्ट किया जाता है । यही दोनोंमें भेद है। ज्ञान और