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________________ '५६ स्वयम्भूस्तोत्र होते ही ज्ञानकी विपुल किरणें प्रकट होती हैं, जिनसे सकल जगतको प्रतिबुद्ध किया जाता है (१२१)। और ऐसा करके ही अनवद्य (निर्दोष ) विनय और दमरूप तीर्थका नायकत्व प्राप्त होता है (१२२)। केवलज्ञान-द्वारा अखिल विश्वको युगपत् करतलामलकवत् जानने में बाह्यकरण चक्षुरादिक इन्द्रियां और अन्तःकरण मन ये अलग अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो · कोई बाधा उत्पन्न करते हैं और न किसी प्रकारका उपकार ही सम्पन्न करते हैं (१३०) (२३) जो योगनिष्ठ महामना होते हैं वे घोर उपद्रव आनेपर भी पार्श्वजिनके समान अपने उस योगसे चलायमान नहीं होते (१३१) । अपने योग (शुक्लध्यान ) रूप खड्गकी तीक्ष्णधारसे दुर्जय मोहशत्रुका घात करके वह आर्हन्त्यपद प्राप्त किया जाता है जो अचिन्त्य है, अद्भुत है और त्रिलोककी पूजातिशयका स्थान है (१३३) । जो समग्रधी (सर्वज्ञ ) सच्ची विद्याओं तथा तपस्याओंका प्रणायक और मिथ्या दर्शनादिरूप कुमार्गो की दृष्टियोंसे उप्तन्न होने वाले विभ्रमोंका विनाशक होता है वह सदा वन्दनीय होता है (१३.)। ___ (२४) गुण-समुत्थ-कीर्ति शोभाका कारण होती है (१३६)। जिनेन्द्र-गुणोंमें जो अनुशासन प्राप्त करते हैं उन्हें अपने आत्मामें विकसित करनेके लिये आत्मीय दोषोंको दूर करनेका पूर्ण प्रयत्न करते हैं वे विगत-भव होते हैं-संसार परिभ्रमणसे सदाके लिए छूट जाते हैं । दोष चाबुककी तरह पीडनशील हैं (१३७)। 'स्यात्' शब्द-पुरस्सर कथनको लिए हुए जो 'स्याद्वाद' हैअनेकान्ता-त्मक प्रवचन है वह निर्दोष है; क्योंकि दृष्ट
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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