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________________ प्रस्तावना अनुपम योगबलसे-परमशुक्लध्यानाग्निके तेजसे-भस्म किया जाता है और एसा करके ही अभव-सौख्यको-संसारमें न पाए जाने वाले अतीन्द्रिय मोक्ष-सुखको प्राप्त किया जाता है (११५)। . (२१) साधु स्तोताकी स्तुति कुशल-परिणामकी कारण होती है और उसके द्वारा श्रेयोमार्ग सुलभ होता है (११६) । परमात्मस्वरूप अथवा शुद्धात्मस्वरूपमें चित्तको एकाग्र करनेसे जन्मनिगडको समूल नष्ट किया जाता है (११७) । वस्तुतत्त्व बहुत नयोंकी विवक्षाके वशसे विधेय, प्रतिपेध्य, उभय, अनुभय तथा मिश्रभंग-विधेयानुभय, प्रतिषेध्यानुभय और उभयाऽनुभय-रूप है उसके अपरिमित विशेषों (धर्मो') मेंसे प्रत्येक विशेष सदा एक दूसरेकी अपेक्षाको लिए रहता है और सप्तभङ्गके नियमको अपना विषय किये रहता है (११८)। अहिंसा परमब्रह्म है । जिस आश्रमविधिमें अणुमात्र भी आरम्भ न हो वहीं अहिंसाकी पूर्णप्रतिष्ठा होती है-अन्यन्त्र नहीं। अहिंसा परमब्रह्मकी सिद्धि के लिए उभय प्रकारके परिग्रहका त्याग आवश्यक है। जो स्वाभाविक वेषको छोड़कर विकृतवेष तथा उपाधिमें रत होते है उनसे परिग्रहका वह त्याग नहीं बनता (११६) । मनुष्यके शरीरका इन्द्रियोंकी शान्तताको लिए हुए आभूषण, वेष तथा ( वस्त्र प्रावरणादिरूप) व्यवधानसे रहित अपने प्राकृतिक (दिगम्बर) रूपमें होना और · फलतः काम-क्रोधका पासमें न फटकना निर्मोही होनेका सूचक है और जो निर्मोही होता है वही शान्ति-सुखका स्थान होता है (१२०) । (२२) परमयोगरूप शुक्लध्यानाग्निसे कल्मषेन्धनको-ज्ञानावरणादिरूप- कर्मकाष्ठको-भस्म किया जाता है, उसके भस्म
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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