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________________ स्वयम्भूस्तोत्र गुण-दोषकी उत्पत्तिका निमित्त होती है वह अन्तरंगमें वर्तनेवाले गुण-दोषोंकी उत्पत्तिके अभ्यन्तर मूलहेतुकी अंगभूत होती है। बाह्यवस्तुकी अपेक्षा न रखता हुआ केवल अभ्यन्तर कारण भी गुण-दोषकी उत्पत्तिमें समर्थ नहीं है (५६) । बाह्य और अभ्यन्तर दोनों कारणोंको यह पूर्णता ही द्रव्यगत स्वभाव है, अन्यथा पुरुषोंमें मोक्षकी विधि भी नहीं बन सकती (६०)। (१३) जो नित्य-क्षणिकादिक नय परस्परमें अनपेक्ष (स्वतंत्र) होनेसे स्व-पर-प्रणाशी (स्त्र-पर-वैरी) हैं (और इसलिये 'दुर्नय' हैं) वे ही नय परस्परापेक्ष (परस्परतंत्र) होनेसे स्व-परोपकारी हैं और इसलिये तत्त्वरूप सम्यक नय हैं (६१)। जिस प्रकार एक-एक कारक शेष अन्यको अपना सहायक रूप कारक अपेक्षित करके अर्थकी सिद्धिके लिए समर्थ होता है उसी प्रकार सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले अथवा सामान्य और विशेषको विषय करनेवाले (द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक आदिरूप) जो नय हैं वे मुख्य और गौणकी कल्पनासे इष्ट (अभिप्रेत) हैं (६२) । परस्परमें एक-दूसरेकी अपेक्षाको लिए हुए जो अभेद और भेदका अन्वय तथा व्यतिरेकका ज्ञान होता है उससे प्रसिद्ध होने वाले सामान्य और विशेषकी उसी तरह पूर्णता है जिस तरह कि ज्ञान-लक्षण-प्रमाण स्व-पर-प्रकाशक रूपमें पूर्ण है। सामान्यके विना विशेष और विशेषके विना सामान्य अपूर्ण है अथवा यों कहिये कि बनता ही नहीं (६३)। वाच्यभूत विशेष्य का-सामान्य अथवा विशेषका-वह वचन जिससे विशेष्यको नियमित किया जाता है 'विशेषण' कहलाता है और जिसे नियमित किया जाता है वह 'विशेष्य' है। विशेषण और विशेष्य दोनोंके सामान्यरूपताका जो अतिप्रसंग आता है वह स्याद्वादमतमें नहीं बनता; क्योंकि विवक्षित विशेषण-विशेष्यसे अन्य
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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