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________________ . प्रस्तावना ४६ . व्यवस्थासे एक ही वस्तु, शत्र, मित्र तथा उभय अनुभय-शक्तिको लिये रहती है। वास्तवमें वस्तु दो अवधियों (मर्यादाओं)से ही कार्यकारी होती है-विधि-निषेध, सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्यायरूप दो दो धमों का आश्रय लेकर ही अर्थक्रिया करनेमें प्रवृत्त होती है और अपने यथार्थ स्वरूपकी प्रतिष्ठापक बनती है (५३)। वादी-प्रतिवादी दोनोंके विवादमें दृष्टान्तकी सिद्धि होनेपर साध्य प्रसिद्ध होती है; परन्तु वैसी कोई दृष्टान्तभूत वस्तु है ही नहीं जो सर्वथा एकान्तकी नियामक दिखाई देती हो। अनेकान्तदृष्टि सबमें-साध्य, साधन और दृष्टान्तादिमें अपना प्रभाव डाले हुए है-वस्तुमात्र अनेकान्तत्वसे व्य.प्त है। इसीसे सर्वथा एकान्तवादियोंके मतमें ऐसा कोई दृष्टान्त ही नहीं बन सकता जो उनके सर्वथा एकान्तका नियामक हो और इसलिये उनके सर्वथा नित्यत्वादि साध्यकी सिद्धि नहीं बन सकती (५४)। एकान्त दृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धिरूप न्याय-बाणोंसे-तत्त्वज्ञानके सम्यक प्रहारोंसे-मोहशत्रुका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए शत्रुसमूहका-नाश किया जाता है (५५)। (१२) जो राग और द्वेषसे रहित होते हैं उन्हें यद्यपि पूजा तथा निन्दासे कोई प्रयोजन नहीं होता, फिर भी उनके पुण्यगुणोंका स्मरण चित्तको पाप-मलोंसे पवित्र करता है (५७)। पूज्यजिनकी पूजा करते हुए जो (सराग-परिणति अथवा आरम्भादिद्वारा) लेशमात्र पापका उपार्जन होता है वह (भावपूर्वक की हुई पूजासे उत्पन्न होनेवाली) · बहुपुण्यराशिमें उसी प्रकारसे .दोषका कारण नहीं बनता जिस प्रकार कि विषकी एक कणिका शीत-शिवाम्बुराशिको-ठंडे कल्याणकारी जलसे भरे हुए समुद्रको-दूषित करनेमें समर्थ नहीं होती (५८)। जो बाह्य वस्तु
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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