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________________ ४८ स्वयम्भू स्तोत्र आकांक्षी - सापेक्षवादी अथवा स्याद्वादीका 'स्यात्' यह निपात-स्यात् शब्दका साथमें प्रयोग गौणकी अपेक्षा न रखनेवाले नियम में सर्वथा एकान्तमतमें बाधक होता है (४४) । 'स्यात् ' पदरूपसे प्रतीयमान वाक्य मुख्य और गौणकी व्यवस्थाको लिये हुए हैं और इसलिये अनेकान्तवादसे द्वेष रखनेवालोंको अपथ्य'रूपसे अनिष्ट है— उनकी सैद्धान्तिक प्रकृतिके विरुद्ध है (४५) । . इस स्तवनमें तत्त्वज्ञानकी भी कुछ विशेष व्याख्या अनुवादपरसे जानने योग्य है । (१०) सांसारिक सुखोंकी अभिलाषारूप अग्नि दाहसे मूर्छित हुआ मन ज्ञानमय अमृतजलोंके सिञ्चनसे मूर्छा - रहित होता है (४७) आत्मविशुद्धिके मार्ग में दिन रात जागृत रहनेकीपूर्ण सावधान बने रहने की - जरूरत है, तभी वह विशुद्धि सम्पन्न हो सकती है (४८) | मन-वचन-कायको प्रवृत्तिको पूर्ण - तया रोकने से पुनर्जन्मका अभाव होता है और साथ ही जरा भी टल जाती है (४६) । (११) वह विधि - स्वरूपादि - चतुष्टय से अस्तित्वरूपप्रमाण है जो कथंचिन् तादात्म्य - सम्बन्धको लिए हुए प्रतिषेधरूप है -- पररूपादिचतुष्टयको अपेक्षा नास्तित्वरूप भी है। इन विधि- प्रतिषेध दोनोंमें से कोई एक प्रधान होता है (वक्ता के अभिप्रायानुसार, न कि स्वरूप से ) | मुख्यके नियामका - 'स्वरूपादि चतुष्टयसे विधि और पररूपादि चतुष्टयसे ही निषेध' इस नियमका -जो हेतु है वह नय है और वह नय दृष्टान्तसमर्थनदृष्टान्त समर्थित अथवा दृष्टान्तका समर्थक - होता है (५२) । . विवक्षित मुख्य होता है और अविवक्षित गौण । जो अविवक्षित होता है वह निरात्मक ( अभावरूप) नहीं होता । मुख्य- गौरकी
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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