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प्रस्तावना
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(c) जिन्होंने अपने अन्तःकरण के कषाय-बन्धनको जीता है - सम्पूर्ण - क्रोधादि - कषायों का नाश कर कषाय-पद प्राप्त किया है - वे 'जिन' होते हैं ( ३६ ) | ध्यान- प्रदीपके अतिशयसेपरमशुक्लध्यानके तेज द्वारा - प्रचुर मानस अन्धकार - ज्ञानावरणादि कर्मजन्य आत्म का समस्त अज्ञानान्धकार — दूर होता है (३७) ।
तथा
(६) तत्त्व वह है जो सत्-असत् आदिरूप विवक्षिताऽविवा - क्षित स्वभावको लिये हुए है और एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक है तथा प्रमाण-सिद्धि है(४१) । वह तत्त्व कथंचित् तद्रूप और कथंचित् तद्रूप है; क्योंकि वैसी ही सत् असत् आदि रूपकी प्रतीति होती है । स्वरूपादि - चतुष्टयरूप विधि और पररूपादिचतुष्टयरूप निषेधके परस्पर में अत्यन्त ( सर्वथा ) भिन्नता अभिन्नता नहीं है; क्योंकि सर्वथा भिन्नता या अभिन्नता माननेपर शून्य-दोष आता है - वस्तुके सर्वथा लोपका प्रसंग उपस्थित होता है (४२) । यह वही है, इस प्रकारकी प्रतीति होने से वस्तुतत्त्व नित्य है और यह वह नहींअन्य है, इस प्रकारकी प्रतीतिकी सिद्धिसे वस्तुतत्त्व नित्य नहींअनित्य है । वस्तुतत्त्वका नित्य और अनित्य दोनों रूप होना • विरुद्ध नहीं है; क्योंकि वह बहिरंग निमित्त - सहकारी कारण - अन्तरंग निमित्त — उपादान कारण — और नैमित्तिक - निमित्तोंसे उत्पन्न होनेवाले कार्य — के सम्बन्धको लिये हुए है (४३) । पदका वाच्य प्रकृति ( स्वभाव ) से एक और अनेक रूप है, 'वृक्षा:' इस पदज्ञानकी तरह | अनेकान्तात्मक वस्तुके 'अस्तित्वादि किसी एक धर्मका प्रतिपादन करनेपर उस समय गौणभूत नास्तित्वादि दूसरे धर्म के प्रतिपादन में जिसकी आकांक्षा रहती है ऐसे