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स्वयमूर।
स्वयम्भूस्तोत्र कान्तदृष्टिके मतमें ही ठीक बैठती है--एकान्तदृष्टियों अथवा सर्वथा एकान्तवादियोंके मतोंमें नहीं-और 'शास्ता' ( तत्त्वोपदेष्टा ) पदके योग्य स्याद्वादी 'अहंन्त-जिन ही होते हैं-उन्हींका उपदेश मानना चाहिये (१४)।
(४) समाधिकी सिद्धि के लिये उभयप्रकारके नैन्थ्य-गुणसे- बाह्याभ्यान्तर दोनों प्रकारके परिग्रहके त्यागसे युक्त होना आवश्यक है-विना इसके समाधिकी सिद्धि नहीं होती; परन्तु क्षमा सखीवाली दयावधूका त्याग न करके दोनोंको अपने आश्रयमें रखना जरूरी है (१६)। अचेतन शरीरमें और शरीरसम्बन्धसे अथवा शरीरके साथ किया गया आत्माका जो कर्मवश बन्धन है उससे उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःखादिक तथा स्त्रीपुत्रादिकमें 'यह मेरा है। इस प्रकारके अभिनिवेशको लिये हुए हानेसे तथा क्षणभंगुर पदार्थों में स्थायित्वक निश्चय कर लेनेके कारण यह जगत नष्ट हो रहा है-आत्महित-साधनसे विमुख होकर अपना अकल्याण कर रहा है (१७)। क्षुधादि दु:खोंके प्रतिकारसे और इन्द्रिय-विषय-जनित स्वल्प सुखके अनुभवसे देह
और देहधारीका सुखपूर्वक अवस्थान नहीं बनता। ऐसी हालतमें सुधादि-दुःखोंके इस क्षणस्थायी प्रतीकार (इलाज) और इन्द्रियविषय-जन्य स्वल्प सुखके सेवनसे न तो वास्तवमें इस शरीरका कोई उपकार बनता है और न शरीरधारी आत्माका ही कुछ भला होता है अतः इन प्रतीकारादिमें आसक्ति (अतीव रागकी प्रवृत्ति) व्यर्थ है (१८)। जो मनुष्य आसक्तिके इस लोक तथा परलोक-सम्बन्धी दोषोंको समझ लेता है वह इन्द्रिय-विषयसुखोंमें आसक्त नहीं होता; अतः आसक्तिके दोषको भले प्रकार समझ लेना चाहिये (१९)। आसक्तिसे तृष्णाकी अभिवृद्धि होती