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________________ प्रस्तावना AAAMANA. मूल कारणको अपने ही समाधि-तेजसे भस्म किया जाता है और तभी ब्रह्मपदरूप अमृतका स्वामी बना जाता है (४)। (२) जो महामुनि धनोपदेहसे-घातिया कर्मोंके अावरणादिरूप उपलेपसे-रहित होते हैं वे भव्यजनोंके हृदयोंमें संलग्न हुए कलकोंकी-अज्ञानादि दोषों तथा उनके कारणीभूत ज्ञानावरणादि कर्मोंकी-शान्तिके लिये उसी प्रकार निमित्तभूत होते हैं जिस प्रकार कि कमलोके अभ्युदयके लिये सूर्य (C)[ यह ज्ञान भक्तियोगमें सहायक होता है ] । उत्तम और महान धर्मतीर्थको पाकर भव्यजन दुःखोंपर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते हैं जिस प्रकार कि घामसे संतप्त हुए हाथी शीतल गंगाद्रहमें प्रवेश करके अपना सब अाताप मिटा डालते हैं (8)। जो ब्रह्मनिष्ठ (अहिंसातत्पर ), सम-मित्र-शत्रु और कषाय-दोषोंसे रहित होते हैं वे ही श्रात्मलक्ष्मीको-अनन्तज्ञानादिरूप जिनश्रीको-प्राप्त करनेमें समर्थ होते हैं (१०)। (३) यह जगत अनित्य है, अशरण है, अहंकार-ममकारकी क्रियाओंके द्वारा संलग्न हुए मिथ्याभिनिवेशके दोषसे दूषित है और जन्म-जरा-मरणसे पीड़ित है, उसे निरंजना शान्तिकी जरूरत है (१२) । इन्द्रिय-विषय-सुख विजलीकी चमकके समान चंचल है-क्षणभर भी स्थिर रहनेवाला नहीं है और तृष्णारूपी रोगकी वृद्धिका एकमात्र हेतु है-इन्द्रिय-विषयोंके अधिकाधिक सेवनसे तृप्ति न होकर उलटी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णाकी वृद्धि ताप उत्पन्न करती है और वह ताप जगतको ( कृपिवाणिज्यादि क्लेशकों में प्रवृत्त कराकर ) अनेक दुःख-परम्परासे पीडित करता रहता है (१३)। बन्ध, मोक्ष, दोनोंके कारण, बद्ध, मुक्त और मुक्तिका फल, इन सबकी व्यवस्था स्याद्वादी-अने
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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