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प्रस्तावना
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है और इस प्राणीकी स्थिति सुखपूर्वक नहीं बनती, इसीसे वह तापकारी है। (चौथे स्तवनमें वर्णित) ये सब लोक-हितकी बातें हैं (२०)।
(५) अनेकान्त-मतसे भिन्न शेष सब मतोंमें सम्पूर्ण क्रियाओं तथा कतो, कर्म, करण आदि कारकोंके तत्त्वकी सिद्धि-उनके स्वरूपकी उत्पत्ति अथवा ज्ञप्ति के रूपमें प्रतिष्ठा-नहीं बनती, इसीसे अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व ही सुयुक्ति-नीत है (२१)। वह सुयुक्ति-नीत वस्तुतत्त्व भेदाऽभेद-ज्ञानका विषय है और अनेक तथा एकरूप है, और यह वस्तुको भेद-अभेदके रूपमें ग्रहण करनेवाला ज्ञान ही सत्य है। जो लोग इनमें से एकको ही सत्य मानकर दूसरेमें उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है; क्योंकि परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध होनेसे दोनों से एकका अभाव हो जानेसे वस्तुतत्त्व. अनुपख्यि-नि:स्वभाव हो जाता है (२२)। जो सत् है उसके कथञ्चित् असत्व-शक्ति भी होती है; जैसे पुष्प वृक्षोंपर तो अस्तित्वको लिये हुए प्रसिद्ध है परन्तु आकाशपर उसका अस्तित्व नहीं है, आकाशकी अपेक्षा वह असत्रूप है। यदि वस्तुतत्त्वको सर्वथा स्वभावच्युत माना जाय तो वह अप्रमाण ठहरता है। इसीसे सर्वजीवादितत्त्व कथञ्चित सत्-असत्रूप अनेकान्तात्मक है। इस मतसे भिन्न जो एकान्तमत है वह स्ववचन-विरुद्ध है (२३)। यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय-अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रियाकारककी योजना ही बन सकती है। ( इसी तरह ) जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सर्वथा सत् है उसका कभी नाश नहीं होता। दीपक भी बुझ जानेपर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकाररूप पुद्गल पर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है (२४)।