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स्वयम्भूस्तोत्र
दूर करने. निर्विकार (निर्दोष) बनने, बन्धनरहित (मुक्त ) होने तथा अपने निजरूपमें सुस्थित होनेके साधनोंका परिज्ञान कराया जाता है. और इस तरह हृदयान्धकारको दूर कर-भूल-भ्रान्तियोंको मिटाकर-आत्मविकास सिद्ध किया जाता है, उसे 'ज्ञानयोग' कहते हैं। इस ज्ञानयोगके विषयमें स्वामी ‘समन्तभद्र ने क्या कुछ कहा है उसका पूरा परिचय तो उनके देवागम, युक्त्यनुशासन आदि सभी ग्रन्थोंके गहरे अध्ययनसे प्राप्त किया जा सकता है। यहांपर प्रस्तुत ग्रन्थ में स्पष्टतया सूत्ररूपसे, सांकेतिक रूपमें अथवा सूचनाके रूपमें जो कुछ कहा गया है उसे, एक स्वतंत्र निबन्धमें संकलित न कर, स्तवन-क्रमसे नीचे दिया जाता है, जिससे पाठकोंको यह मालूम करनेमें सुविधा रहे कि किस स्तवनमें कितना और क्या कुछ तत्त्वज्ञान सूत्रादिरूपसे समाविष्ट किया गया है। विज्ञजन अपने बुद्धिबलसे उसके विशेष रूपको स्वयं समझ सकेंगे-व्याख्या करके यह बतलानेका यहां अवसर नहीं कि उसमें और क्या क्या तत्त्वज्ञान छिपा हुआ है अथवा उसके साथमें अविनाभावरूपसे सम्बद्ध है। उसे व्याख्या करके बतलानेसे प्रस्तावनाका विस्तार बहुत बढ़ जाता है, जो अपनेको इष्ट नहीं है। तत्त्वज्ञान-विषयक जो कथन जिस कारिकामें आया है उस कारिकाका नम्बर भी साथमें नोट कर दिया गया है। __ (१) पूर्ण विकासके लिये प्रबुद्धतत्त्व होकर ममत्वसे विरक्त होना, वधू-वित्तादि-परिग्रहका त्याग करके जिनदीक्षा लेनामहाव्रतादिको ग्रहण करना, दीक्षा लेकर आए हुए उपसर्गपरिषहोंको समभावसे सहना और प्रतिज्ञात सव्रत-नियमोंसे चलायमान नहीं होना आवश्यक है (२,३)। अपने दोषोंके