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प्रस्तावना
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ज्ञानके साथ साथ समवसरणादि-विभूतिके-सम्राट् हुए हैं. इसीलिये समन्तभद्र उन्हें लक्ष्य करके प्रस्तुत ग्रन्थके निम्नवाक्यमें कहते हैं कि 'आप मेरी स्तुतिके योग्य हैं-पात्र हैं। एकान्तदृष्टि-प्रतिषेध-सिद्धि-न्यायेषुभिर्मोहरिपु निरस्य । असिस्म कैवल्य-विभूति-सम्राट् ततस्त्वमहन्नसि मे स्तवाहः॥
इससे समन्तभद्रकी परीक्षा-प्रधानंता, गुणज्ञता और परीक्षा करके सुश्रद्धाके साथ भक्तिमें प्रवृत्त होनेकी बात और भी स्पष्ट हो जाती है। साथ ही, यह भी मालूम हो जाता है कि जब तक एकान्तदृष्टि बनी रहती है तब तक मोह नहीं जीता जाता, जब तक मोह नहीं जीता जाता तब तक आत्म-विकास नहीं बनता
और न पूज्यताकी ही प्राप्ति होती है। मोहको उन न्याय-बाणोंसे जीता जाता है जो एकान्तदृष्टिके प्रतिरोधको सिद्ध करनेवाले हैंसर्वथा एकान्तरूप दृष्टिदोषको मिटाकर अनेकान्त दृष्टिकी प्रतिष्ठारूप सम्यग्दृष्टित्वका आत्मामें संचार करनेवाले हैं। इससे तत्त्वज्ञान और तत्त्वश्रद्धानका महत्व सामने आ जाता है, जो अनेकान्तदृष्टिके आश्रित है, और इसीसे समन्तभद्र भक्तियोगके एकान्तपक्षपाती नहीं थे। इसी तरह ज्ञानयोग तथा कर्मयोगके भी वे एकान्त-पक्षपाती नहीं थे-एकका दृसरेके साथ अकाट्य सम्बन्ध मानते थे। ज्ञान-योग ___ जिस समीचीन ज्ञानाभ्यासके द्वारा इस संसारी जीवात्माको अपने शुद्धस्वरूपका, पररूपका, परके सम्बन्धका, सम्बन्धसे होनेवाले विकारका - दोषका अथवा विभावपरिणतिका -, विकारके विशिष्ट कारणोंका और उन्हें