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________________ ‘स्वयम्भूस्तोत्र न्यायकी कसौटीपर कसकर ठीक एवं युक्तियुक्त पाया है तथा अपने आत्मविकासके मार्गमें परम सहायक समझा है, इसी लिये वे पूर्ण हृदयसे जिनेन्द्र के भक्त बने हैं और उन्होंने अपनेको उनके चरण-शरणमें अर्पण कर दिया है। अतः उनकी भक्ति में कुलपरम्परा, रूढिपालन और कृत्रिमता (बनावट-दिखावट)-जैसी कोई बात नहीं थी-वह एक दम शुद्ध विवेकसे संचालित थी और ऐसा ही भक्तियोगमें होना वाहिये। . हाँ, समन्तभद्रका भक्तिमार्ग, जो उनके स्तुति-ग्रंथोंसे भले प्रकार जाना जाता है. भक्तिके सर्वथा एकान्तको लिये हुए नहीं है। स्वयं समन्तभद्र भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग तीनोंकी एक मूर्ति बने हुए थे-इनमेंसे किसी एक ही योगके वे एकान्त पक्षपाती नहीं थे। निरी या कोरी एकान्तता' तो उनके पास तक भी नहीं फटकती थी। वे सर्वथा एकान्तवाद के सख्त विरोधी थे और उसे वस्तुतत्त्व नहीं मानते थे। उन्होंने जिन खास कारणोंसे अहंजिनेन्द्रको अपनी स्तुतिके योग्य समझा और उन्हें अपनी स्तुतिका विषय बनाया है उनमें, उनके द्वारा एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धिरूप न्यायबाण भी एक कारण हैं। अहंन्तदेव अपने इन एकान्तदृष्टि-प्रतिषेधक अमोघ न्यायवाणोंसे-तत्त्वज्ञानके सम्यक प्रहारोंसे-मोहशत्रुका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए ज्ञानावरणादिरूप शत्रु-समूहका नाश करके कैवल्य-विभूतिके- केवल १ जो एकान्तता नयोंके निरपेक्ष व्यवहारको लिये हुए होती है उसे 'निरी' 'कोरी' अथवा 'मिथ्या' एकान्तता कहते हैं । समन्तभद्र इस मिथ्यैकान्ततासे रहित थे; इसीसे देवागममें, एक अापत्तिका निरसन करते हुए, उन्होंने लिखा है-"न मिथ्यकान्तताऽस्ति नः। निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥"
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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