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प्रस्तावना .................xnirrrrrrrr..... ..mmam
सुस्तुत्यां व्यसनं शिरो नतिपरं सेवेदृशी येन ते ।
तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥११४॥ ___ यहाँ सबसे पहले 'सुश्रद्धा' की जो बात कही गई है, वह बड़े महत्वकी है और अगली सब बातों अथवा प्रवृत्तियोंकी जान-प्राण जान पड़ती है। इससे जहाँ यह मालूम होता है कि समन्तभद्र जिनेन्द्रदेव तथा उनके शासन(मत)के विषयमें अन्धश्रद्धालु नहीं थे
वहाँ यह भी जाना जाता है कि भक्तियोगमें अन्धश्रद्धाका ग्रहण • नहीं है-उसके लिये सुश्रद्धा चाहिये, जिसका सम्बन्ध विवेकसे है। समन्तभद्र ऐसी ही विवेकवती सुश्रद्धासे सम्पन्न थे। अन्धीभक्ति वास्तवमें उस फलको फल ही नहीं सकती जो भक्तियोगका लक्ष्य और उद्देश्य है। ___ इसी भक्त्यर्पणाकी बातको प्रस्तुत ग्रन्थमें एक दूसरे ही ढंगसे व्यक्त किया गया है और वह इस प्रकार है :
अतएव ते बुधनुतस्य चरित-गुणमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थितावयम् ॥
इस वाक्यमें स्वामी समन्तभद्र यह प्रकट करते हैं कि 'हे बुधजनस्तुतजिनेन्द्र ! आपके चरित-गुण और अद्भुत उदयको न्यायविहित-युक्तियुक्त-निश्चय करके ही हम बड़े प्रसन्नचित्तसे आपमें स्थित हुए हैं-आपके भक्त बने हैं और हमने आपका आश्रय लिया है।'
इससे साफ जाना जाता है कि समन्तभद्रने जिनेन्द्रके चरितगुणकी और केवलज्ञान तथा समवसरणादि-विभूतिके प्रादुर्भावको लिये हुए अद्भुत् उदयकी जाँच की है-परीक्षा की है और उन्हें