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स्वयम्भूस्तोत्र
marrrrrrrrr.... रत है और पंडितजन उन्हींको अंगीकार किया है जो जिनेन्द्रके चरणोंमें सदा नम्रीभूत रहते हैं । (११३)
इन्हीं सब बातोंको लेकर स्वामी समन्तभद्रने अपनेको अहज्जिनेन्द्रकी भक्तिके लिये अर्पण कर दिया था। उनकी इस भक्तिके ज्वलन्त रूपका दर्शन स्तुतिविद्याके निम्न पद्यमें होता है, जिसमें वे वीरजिनेन्द्रको लक्ष्य करके लिखते हैं-'हे भगवन्
आपके मतमें अथवा आपके विषयमें मेरी सुश्रद्धा है-अन्धश्रद्धा नहीं; मेरी स्मृति भी आपको ही अपना विषय बनाये हुए हैसदा आपका ही स्मरण किया करती है. मैं पूजन भी आपका ही करता हूँ, मेरे हाथ आपको ही प्राणामांजलि करनेके निमित्त हैं मेरे कान आपकी ही गुण-कथाको सुनने में लीन रहते हैं, मेरी अांखें
आपके ही सुन्दर रूपको देखा करती हैं, मुझे जो व्यसन है वह भी आपकी सुन्दर स्तुतियों के रचने का है और मेरा मस्तक
भी आपको ही प्रणाम करनेमें तत्पर रहता है। इस प्रकारकी • चूंकि मेरी सेवा है-मैं निरन्तर ही आपका इस तरह आराधन किया करता हूँ--इसीलिये .हे तेजःपते ! (केवलज्ञान स्वामिन् !) मैं तेजस्वी हूँ. सुजन हूँ और सुकृति (पुण्यिवान) हूँ :
सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यर्चनं चाऽपि ते हस्तावञ्जलये कथा-श्रुति-रतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते । १. प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव शिरस्तद्यन्नतं ते पदे जन्मादः सफलं परं भवभिदी यत्राश्रिते ते पदे ।. मांगल्यं च स यो रतस्तव मते गीः सैव या त्वा स्तुते ते ज्ञा ये प्रणता जनाः क्रमयुगे देवाधिदेवस्य ते ॥ ११३।।