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________________ प्रस्तावना इस तरह भक्तियोगमें, जिसके स्तुति, पूजा, वन्दना, आराधना, शरणागति, भजन-स्मरण और नामकीर्तनादिक अग हैं, आत्मविकासमें सहायक हैं। और इसलिये जो विवेकीजन अथवा बुद्धिमान पुरुष आत्मविकासके इच्छुक तथा अपना हितसाधनमें सावधान हैं वे भक्तियोगका आश्रय लेते हैं। इसी बातको प्रदर्शित करने वाले ग्रंथके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं: १. इति प्रभो ! लोक-हितं यतो मतं ___ ततो भवानेवगतिः सतां मतः (२०)। २. ततः स्वनिश्रेयस-भावना-पर बुधप्रवेकः जिन ! शीतलेड्यसे (५०)। ३. ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः (६५)। ४. तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमार्याः स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः (८५) । ५. स्वार्थ-नियत-मनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्रमुखरा महर्षयः (१२४) । स्तुतिविद्यामें तो बुद्धि उसीको कहा है जो जिनेन्द्रका स्मरण करती है, मस्तक उसीको बतलाया है जो जिनेन्द्र के पदोंमें नत रहता है, सफलजन्म उसीको घोषित किया है जिसमें संसार-परिभ्रमणको नष्ट करने वाले जिनचरणोंका आश्रय लिया जाता है, वाणी उसीको माना है जो जिनेन्द्रका स्तवन (गुणकीर्तन) करती है, पवित्र उसीको स्वीकार किया है जो जिनेन्द्र के मस में
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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