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स्वयम्भू स्तोत्र
मोह तथा राग-द्वेष - काम-क्रोधादि विकारोंकी - शान्ति करके आत्मा में परमशान्ति स्थापित की है— पूर्ण सुखस्त्ररूपा स्वाभाविकी स्थिति प्राप्त की है - और इसलिये जो शरणागतोंको शान्तिके विधाता हैं - उनमें अपने आत्मप्रभाव से दोषोंकी शान्ति करके शान्ति सुखका संचार करने अथवा उन्हें शान्ति सुखरूप परिणत करने में सहायक एवं निमित्तभूत हैं। अत: ( इस शरणागति के फलस्वरूप ) वे शान्ति - जिन मेरे संसार - परिभ्रमणका अन्त और सांसारिक क्लेशों तथा भयोंकी समाप्ति में कारणीभूत होंवें ।'
यहां शान्तिजिनको शरणागतोंकी शान्तिका जो विधाता ( कर्ता ) कहा है उसके लिये, उनमें किसी इच्छा या तदनुकूल प्रयत्नके आरोपकी जरूरत नहीं है, वह कार्यं उनके 'विहितात्मशान्ति' होनेसे स्वयं ही उस प्रकार हो जाता है जिस प्रकार कि अग्निके पास जाने से गर्मीका और हिमालय या शीतप्रधान प्रदेशके पास पहुँचने से सर्दीका संचार अथवा तद्रूप परिणमन स्वयं हुआ करता है और उसमें उस अनि यो हिममय पदार्थकी इच्छादिक - जैसा कोई कारण नहीं पड़ता । इच्छा तो स्वयं एक दोष है और वह उस मोहका परिणाम है जिसे स्वयं स्वामीजीने इस ग्रन्थ में 'अनन्तदोषाशय - विग्रह' (६६) बतलाया है। दोषों की शान्ति हो जानेसे उसका अस्तित्व ही नहीं बनता। और इसलिए देव विना इच्छा तथा प्रयत्नवाला कर्तृत्व सुघटित है । इसी कर्तृत्वको लक्ष्य में रखकर उन्हें 'शान्तिके विधाता' कहा गया है - इच्छा तथा प्रयत्नवाले कर्तृत्वकी दृष्टिसे वे उसके विधाता नहीं हैं। और इस तरह कर्तृत्व- विषयमें अनेकान्त चलता है - सर्वथा एकान्तपक्ष जैनशासन में ग्राह्य ही नहीं है ।
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यहां प्रसंगवश इतना और भी बतला देना उचित जान पड़ता है कि उक्त पद्य तृतीय चरण में सांसारिक क्लेशों तथा