SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना AAAA भयोंकी शांतिमें कारणीभूत होनेकी जो प्रार्थना की गई है वह जैनी प्रार्थनाका मूलरूप है, जिसका और भी सष्ट दर्शन नित्यकी प्राथनामें प्रयुक्त निम्न प्राचीनतम गाथामें पाया जाता हैदुक्ख-खो कम्म-खो समाहि-मरणं च बोहि-लाहो य । मम होउ तिजगबंधव ! तव जिणवर चरण-सरणेण ॥ __इसमें जो प्रार्थना की गई है उसका रूप यह है कि-'हे त्रिजगतके (निनिमित्त) बन्धु जिनदेव ! आपके चरण-शरणके प्रसादसे मेरे दुःखोंका क्षय, कमों का क्षय, समाधिपूर्वक मरण और बोधिका--सम्यग्दर्शनादिकका लाभ होवे ।' इससे यह प्रार्थना एक प्रकारसे आत्मोत्कर्षकी भावना है और इस बातको सूचित करती है कि जिनदेवकी शरण प्राप्त होनेसे--प्रसन्नतापूर्वक जिनदेवके चरणोंका आराधन करनेसे-दुःखोंका क्षय और कमों का क्षयादिक सुख-सायं होता है। यही भाव समन्त भद्रकी प्रार्थनाका है। इसो भावको लिए हुए ग्रंथमें दूसरी प्राथनाएँ इस प्रकार हैं "मति-प्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ !" (२५) "मम भवताद् दुरितासनोदितम्” (१०५) "भवतु ममापि भवोपशान्तये" (११५) परन्तु ये ही प्राथनाएँ जब जिनेन्द्रदेवको साक्षात्रूप में कुछ करने-कराने के लिये प्रेरित करती हुई जान पड़ती तो हैं वे अलं कृतरूपको धारण किए हुए होती हैं। प्रार्थनाके इस अलंकृतरूपको लिए हुए जो वाक्य प्रस्तुत ग्रन्थमें पाये जाते हैं वे निम्न प्रकार १. पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः (५)
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy