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________________ wirmw.... स्वयम्भूस्तोत्र , ___अनेक स्थानोंपर समन्तभद्रने जिनेन्द्रकी स्तुति करनेमें अपनी असमर्थता व्यः करते हुए अपनेको अज्ञ (१५), बालक (३०) तथा अल्पधौ (५६) के रूपमें उल्लिखित किया है; परन्तु एक स्थानपर तो उन्होंने अपनी भक्ति तथा विनम्रताकी पराकाष्ठा ही कर दी है, जब इतने महान ज्ञानी होते हुए और इतनी प्रौढ़ स्तुति रचते हुए भी वे लिखते हैं त्वमीदृशस्तादृश इत्ययं मम प्रलाप - लेशोऽल्प- मतेमहामुने ! अशेष-माहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय संस्पर्श इवाऽमृताम्बुधः ॥७०॥ (हे भगवन् ! ) आप ऐसे हैं. वैसे हैं आपके ये गुण हैं, वे गुण हैं इस प्रकार स्तुतिरूपनें मुझ अल्पमतिका-यथावत् गुणोंके परिज्ञानसे रहित स्तोताका-यह थोड़ासा प्रलाप है। (तब क्या यह निष्फल होगा ? नहीं। ) अमृतसमुद्र के अशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी जिस प्रकार उसका संस्पर्श कल्याणकारक होता है उसी प्रकार हे महामुने ! आपके अशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी मेरा यह थोड़ासा प्रलाप आपके गुणोंके संस्पर्शरूप होनेसे कल्याणका ही हेतु है।' इससे जिनेन्द्र-गुणोंका स्पर्शमात्र थोड़ासा अधूरा कीर्तन भी कितना महत्व रखता है यह स्पष्ट जाना जाता है। जब स्तुत्य पवित्रात्मा, पुण्य-गुणोंकी मूर्ति और पुण्यकीर्ति हो तब उसका नाम भी, जो प्राय: गुण-प्रत्यय होता है, पवित्र होता है और इसीलिये ऊपर उद्धत ८७वीं कारिकामें जिनेन्द्रके नाम-कीर्तनको भी पवित्र करनेवाला लिखा है तथा नीचेकी
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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