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________________ 20 प्रस्तावना पूजा, भक्ति या स्तुतिपर वे प्रसन्न होते। वे तो सच्चिदानन्दमय होनेसे सदा ही प्रसन्नस्वरूप हैं, किसीकी, पूजा आदिकसे उनमें नवीन प्रसन्नताका कोई संचार नहीं होता और इसलिये उनकी पूजा भक्ति या स्तुतिका लक्ष्य उन्हें प्रसन्न करना तथा उनकी प्रसन्नता-द्वारा अपना कोई कार्य सिद्ध करना नहीं है और न वे पूजादिकसे प्रसन्न होकर या स्वेच्छासे किसीके पापोंको दूर करके उसे पवित्र करने में प्रवृत्त होते हैं, बल्कि उनके पुण्य-गुणोंके स्मरणादिसे पाप स्वयं दूर भागते है और फलतः पूजक या स्तुतिकर्ताके आत्मामें पवित्रताका संचार होता है। इसी बातको और अच्छे शब्दोंमें निम्नकारिका-द्वारा स्पष्ट किया गया है स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान्न त्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ॥११६॥ इसमें बतलाया है कि-'स्तुतिके समय और स्थानपर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो और फलकी प्राप्ति भी चाहे सीधी (Direct ) उसके द्वारा होती हो या न होती हो, परन्तु आत्मसाधनामें तत्पर साधुस्तोताकी-विवेक के साथ भक्तिभावपूर्वक स्तुति करनेवालेकी-स्तुति कुशल परिणामकी-पुण्यप्रसाधक या पवित्रता-विधायक शुभभावोंकी-कारण जरूर होती है; और वह कुशल परिणाम अथवा तज्जन्य पुण्यविशेष श्रेय फलका दाता है। जब जगतमें इस तरह स्वाधीनतासे श्रेयोमार्ग सुलभ हैस्वयं प्रस्तुत की गई अपनी स्तुतिके द्वारा प्राप्त है-तब हे सर्वदा अभिपूज्य नमि-जिन ! ऐसा कौन विद्वान-परीक्षापूर्वकारी अथवा विवेकी जन है जो आपकी स्तुति न करे ? कर ही करे ।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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