________________
स्वयम्भूस्तोत्र मुनीन्द्रका चूँ कि नाम-कीर्तन भी-भक्ति-पूर्वक नामका उच्चारण भी हमें पवित्र करता है, इसलिए हम आपके गुणोंका कुछ-लेशमात्र--कथन ( यहां ) करते हैं।
इससे प्रकट है कि समन्तभद्रकी जिन-स्तुति यथार्थताका उल्लंघन करके गुणोंको बढ़ा-चढ़ाकर कहनेवाली लोकप्रसिद्ध स्तुति-जैसी नहीं है, उसका रूप जिनेन्द्र के अनन्त गुणों से कुछ गुणोंका अपनी शक्ति के अनुसार अांशिक कीर्तन करना है। और उसका उद्देश्य अथवा लक्ष्य है आत्माको पवित्र करना। आत्माका पवित्रीकरण पापोंके नाशसे-मोह, कषाय तथा राग-द्वेषादिकके अभावसे होता है। जिनेन्द्रके पुण्य-गुणोंका स्मरण एवं कीर्तन आत्माकी पाप-परिणतिको छुड़ाकर उसे पवित्र करता है, इस बातको निम्न कारिकामें व्यक्त किया गया है
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ ! विवान्त-वैरे । तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिनः
पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥५७।। इसी कारिकामें यह भी बतलाया गया है कि पूजा-स्तुतिसे जिनदेवका कोई प्रयोजन नहीं है; क्योंकि वे वीतराग हैं-रागका अंश भी उनके आत्मामें विद्यमान नहीं हैं, जिससे किसीकी
१ इसी बाशयको ‘युक्त्यनुशासन' की निम्न दो कारिकायोंमें भी व्यक्त किया गया है :याथात्म्यमुलंध्य गुणोदयाख्या लोके स्तुतिभू रिगुणोदधेस्ते । अणिष्ठमप्यंशमशक्नुवन्तो वक्तुं जिन ! त्वां किमिव स्तुयाम ॥२॥ तथापि वैय्यात्यमुपेत्य भक्त्या स्तोतास्मि ते शक्त्यनुरूप-वाक्यः । इष्टे प्रमेयेऽपि यूथास्वशक्ति किन्नोत्सहन्ते पुरुषाः क्रियाभिः ॥३॥