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प्रस्तावना
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गुणोंमें कितने अनुरागी थे यह उनके स्तुति-ग्रन्थोंसे भले प्रकार जाना जाता है । उन्होंने स्वयं स्तुतिविद्यामें अपने विकासका प्रधान श्रेय भक्तियोगको दिया है ( पद्य ११४); भगवान जिनदेवके स्तवनको भव-वनको भस्म करने वाली अग्नि लिखा है; उनके स्मरणको क्लेश समुद्रसे पार करनेवाली नौका बतलाया है ( प० ११५) और उनके भजनका लोहसे पारसमणिके स्पर्श-सामन बतलाते हुए यह घोषित किया है कि उसके प्रभावसे मनुष्य विशदज्ञानी होता हुआ तेजको धारण करता है और उसका वचन भी सारभूत हो जाता है (६०)।
अब देखना यह है कि प्रस्तुत स्वयम्भूग्रन्थमें भक्तियोगके अङ्गस्वरूप 'स्तुति' आदिके विषयमें क्या कुछ कहा गया है और उनका क्या उद्देश्य, लक्ष्य अथवा हेतु प्रकट किया है:_ लोकमें 'स्तुति' का जो ख्य प्रचलित है उसे बतलाते हुए और वैसी स्तुति करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए, स्वामीजी लिखते हैं - गुण-स्तोकं सदुल्लंघ्य तद्बहुत्व-कथा स्तुतिः । आनन्त्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥८६॥ तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामाऽपि कीर्तितम् । पुनाति पुण्यकीते स्ततो बयाम किञ्चन ॥८७॥
अर्थात्-विद्यमान गुणोंकी अल्पताको उल्लङ्घन करके जो उनके बहुत्वकी कथा की जाती है-उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर कहा जाता है उसे लोकमें 'स्तुति' कहते हैं। वह स्तुति (हे जिन !) आपमें कैसे बन सकती है ?- नहीं बन सकती । क्योंकि आपके गुण अनन्त होनेसे पूरे तौर पर कहे ही नहीं जा सकते-बढ़ाचढ़ा कर कहनेकी तो बात ही दूर है । फिर भी आप पुण्यकीर्ति