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स्वयम्भूस्तोत्र इसीको निर्दिष्ट किया है और इसी लिए स्तुति-वन्दनादिके रूपमें यह भक्ति अनेक, नैमित्तिक क्रियाओंमें ही नहीं, किन्तु नित्यकी षट आवश्यक क्रियाओंमें भी शामिल की गई है, जो कि सब आध्यात्मिक क्रियाएँ हैं और अन्तर्दृष्टिपुरुषों (मुनियोंतथा श्रावकों ) के द्वारा आत्मगुणोंके विकासको लक्ष्यमें रखकर ही नित्य की जाती हैं और तभी वे आत्मोत्कर्षकी साधक होती हैं । अन्यथा, लौकिक लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा, यश, भय, रूढि आदिके वश होकर करनेसे उनके द्वारा प्रशस्त अध्यवसाय नहीं बन सकता और न प्रशस्त अध्यवसायके बिना संचित पापों अथवा कर्मो का नाश होकर आत्मीय गुणोंका विकास ही सिद्ध किया जा सकता है । अतः इस विषयमें लक्ष्यशुद्धि एवं भावशुद्धिपर दृष्टि रखनेकी खास जरूरत है, जिसका सम्बन्ध विवेकसे है। विना विवेकके कोई भी क्रिया यथेष्ट फलदायक नहीं होती, और न विना विवेककी भक्ति सद्भक्ति ही कहलाती है।
स्वामी समन्तभद्र का यह स्वयम्भू ग्रन्थ 'स्तोत्र' होनेसे स्तुतिपरक है और इस लिये भक्तियोगकी प्रधानताको लिये हुए हैं, इसमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है। सच पूछिये तो जब तक किसी मनुष्यका अहंकार नहीं मरता तब तक उसके विकासकी भूमिका ही तय्यार नहीं होती । बल्कि पहलेसे यदि कुछ विकास हुआ भी होताहै तो वह भी किया कराया सब गया जब
आया हुंकार' की लोकोक्तिके अनुसार जाता रहता अथवा दूषित हो जाता है। भक्तियोगसे अहंकार मरता है, इसीसे विकास-मार्गमें सबसे पहले भक्तियोगको अपनाया गया है
और इसीसे स्तोत्रग्रन्थोंके रिचनेमें समन्तभद्र प्रायः प्रवृत्त हुए जान पड़ते हैं। आप्तपुरुषों अथवा विकासको प्राप्त शुद्धात्माओंके प्रति आचार्य समन्तभद्र कितने विनम्र थे और उनके