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________________ प्रस्तावना एक मुख्य स्थान प्राप्त है, जिसे भक्ति-मार्ग' भी कहते हैं। सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्माओंकी भक्तिद्वारा आत्मोत्कर्ष साधनेका नाम ही 'भक्ति-योग' अथवा भक्ति-मार्ग' है और 'भक्ति' उनके गुणोंमें अनुरागको, तदनुकूल वर्तनको अथवा उनके प्रति गुणानुरागपूर्वक आदर-सत्काररूप प्रवृत्तिको कहते है, जो कि शुद्धात्मवृत्तिकी उत्पत्ति एवं रक्षाका साधन है। स्तुति, प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा, सेवा, श्रद्धा और अाराधना ये सब भक्तिके ही रूप अथवा नामान्तर हैं । स्तुतिपूजा-वन्दनादिके रूपमें इस भक्तिक्रियाको 'सम्यक्त्ववर्द्धिनी क्रिया' बतलाया है, शुभोपयोगि चरित्र' लिखा है और साथ हो कृतिकर्म' भी लिखा है, जिसका अभिप्राय है पापकर्म-छेदनका अनुष्ठान' । सद्भक्तिके द्वारा औद्धत्य तथा अहंकारके त्यागपूर्वक गुणानुराग बढ़नेसे प्रशस्त अध्यवसायकी-कुशल परिणामकी-उपलब्धि होती है और प्रशस्त अध्यवसाय अथवा परिणामोंको विशुद्धिसे संचित कर्म उसी तरह नाशको प्राप्त होता है, जिस तरह काष्ठके एक सिरमें अग्निक लगनेसे वह सारा ही काष्ठ भस्म हो जाता है । इधर संचित कर्मों के नाशसे अथवा उनकी शक्तिके शमनसे गुणावरोधक कर्मोकी निर्जरा होती या उनका बल-क्षय होता है तो उधर उन अभिलपित गुणोंका उदय होता है, जिससे आत्माका विकास सधता है । इसीसे स्वामी समन्तभद्र जैसे महान् आचार्योने परमात्माकी स्तुतिरूपमें इस भक्तिको कुशल-परिणामकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गको सुलभ और स्वाधीन बतलाया है। और अपने तेजस्वी तथा सुकृती अदि होनेका कारण भी२. १. देखो, स्वयम्भूस्तोत्रकी कारिका नं० ११६ २. देखो, स्तुतिविद्याका पद्म नं० ११४
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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