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________________ स्वयम्भू-स्तोत्र ४० विशोषणं मन्मथ-दुर्मदाऽऽमयं समाधि-भैषज्य-गुणैर्यलीनयता ॥२॥ (हे भगवन् ) आप 'कषाय' नामके पीडनशील शत्रुओंका ! (हृदयमें) नाम निःशेष करते हुए उनका आत्मासे पूर्णतः सम्बन्ध ! ॐ विच्छेद करते हुए-अशेषवित्-सर्वज्ञ-हुए हैं । और आपने कामदेवके दुरभिमानरूप आतङ्कको, जो कि विशेषरूपसे शोषक | -संतापक है, समाधिरूप-प्रशस्त ध्यानात्मक-औषधके गुणोंसे । * विलीन किया है-विनाशित किया है।' परिश्रमाऽम्बुर्भय-वीचि-मालिनी त्वया स्वतृष्णा-सरिदाऽऽर्य ! शोपिता । असङ्ग-धर्मार्क-गभस्ति-तेजसा परं ततो निति-धाम तावकम् ॥ ३ ॥ 'जिसमें परिश्रमरूप जल भरा है और भयरूप तरंगमालाएँ उठती हैं उस अपनी तृष्णा-नदीको हे आर्य-अनन्तजित ! ! आपने अपरिग्रह-रूप ग्रीष्मकालीन सूर्यकी किरणोंके तेजसे सुखा डाला है, इसलिये आपका निर्वृति-तेज उत्कृष्ट है।' (इसपरसे स्पष्ट है कि तृष्णाको जीतनेका अमोघ उपाय अपरिग्रहव्रतका भलेप्रकार पालन है। परिग्रहके रहते तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ा करती है, जिससे उसका जीतना प्रायः नहीं बनता ।) सुहृत्त्वयि श्री-सुभगत्वमश्नुते द्विषंस्त्वयि प्रत्ययवत् प्रलीयते । * 'विलीनयत्' इति पाठान्तरम् ।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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