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. समन्तभद्र-भारती
भवानुदासीनतमस्तयोरपि .प्रभो ! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥ ४ ॥ 'हे भगवन् ! जो आपमें अनुराग-भक्ति-भाव-रखता है। वह श्रीविशिष्ट सौभाग्यको-ज्ञानादि-लक्ष्मीके आधिपत्य अादिको। प्राप्त करता है, और नो आपमें द्वेषभाव रखता है वह प्रत्ययकी
तरह-व्याकरण-शास्त्रमें प्रसिद्ध 'क्विप्' प्रत्ययके समान अथवा क्षणस्थायी इन्द्रियजन्य ज्ञानके समान-विलीन ( नष्ट) होजाता है-! नरकादिक दुर्गतियोंमें जा पड़ता है। परन्तु आप अनुरागी ( मित्र )
और द्वेषी (शत्रु ) दोनोंमें अत्यन्त उदासीन रहते हैं न किसीका नाश चाहते हैं और न किसीकी श्रीवृद्धि; फिर भी मित्र और शत्रु स्वयं ।
ही उक्त फलको प्राप्त हो जाते हैं, यह आपका ईहित--चरित्र| बड़ा ही विचित्र है-अद्भुत माहात्म्यको प्रकट करता अथवा गुप्त रहस्यका सूचक है।'
त्वमीदृशस्तादृश इत्ययं मम प्रलाप-लेशोऽल्प-मतेमहामुने! अशेष-माहात्म्यमनीरयन्नपि ।
शिवाय संस्पर्श इवाऽमृताम्बुधेः ॥शा (७०) (हे भगवन् !) आप ऐसे हैं-वैसे हैं-अापके ये गुण हैं-वे गुण ! हैं, इस प्रकार मुझ अल्पमतिका यथावत् गुणोंके परिज्ञानसे रहित !
स्तोताका--यह स्तुतिरूप थोड़ासा प्रलाप है । ( तब क्या यह निष्फल
होगा ? नहीं) अमृत-समुद्र के अशेष-माहात्म्यको न जानते और । न कथन करते हुए भी जिस प्रकार उसका संस्पर्श कल्याण-कारक ।