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स्वयम्भू-स्तोत्र .
तयोश्च सामान्यमतिप्रसज्यते
विवक्षितात्स्यादिति तेऽन्यवर्जनम् ॥४॥' 'वाच्यभूत विशेष्यका-सामान्य अथवा विशेषका-वह वचन ! जिससे विशेष्यको नियमित किया जाता है-विशेषणकी नियतरूपता- !
के साथ अवधारण किया जाता है—'विशेषण' कहलाता है और
जिसे नियमित किया जाता है वह 'विशेष्य' है। विशेषण और । विशेष्य दोनोंके सामान्यरूपताका जो अतिप्रसंग आता है वह । . (हे विमल जिन ! ) आपके मतमें नहीं बनता; क्योंकि विवक्षित, ! विशेषण-विशेष्यसे अन्य अविवक्षित विशेपण-विशेष्यका 'स्यात्'
शब्दसे वर्जन ( परिहार ) होजाता है-'स्यात्' शब्दकी सर्वथा प्रतिष्ठा के रहनेसे अविवक्षित विशेषण-विशेष्यका ग्रहण नहीं होता, और इसलिये अतिप्रसंग दोष नहीं पाता।'
नयास्तव स्यात्पद-सत्य-लाञ्छिता रसोपविद्धा इव लोह-धातवः । भवन्त्यभिप्रेत-गुणा यतस्ततो
भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥५॥ (६५) '(हे विमल जिन !) आपके मतमें जो (नित्य-क्षीणकादि ) नय हैं वे सब स्यात्पदरूपी सत्यसे चिह्नित हैं कोई भी नय ‘स्यात्' 1 शब्दके अाशय ( कथञ्चित्के भाव ) से शुन्य नहीं है, भले ही 'स्यात्' ।
शब्द साथमें लगा हुअा हो या न हो-और रसोपविद्ध लोह-धातुओं ! के समान–पारेसे अनुविद्ध हुई लोहा-ताम्बा आदि धातुयोंकी तरह
* 'प्रणुता' इति पाठान्तरम् ।
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