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________________ समन्तभद्र-भारती । नय सापेक्ष होकर अपने अर्थकी सिद्धिरूप विवक्षित अर्थके परिज्ञानमें समर्थ से होते हैं। . परस्परेक्षाऽन्वय-भेद-लिङ्गतः । प्रसिद्ध-सामान्य-विशेषयोस्तव । समग्रताऽस्ति स्व-पराऽवभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धि-लक्षणम् ॥३॥ 'परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षाको लिये हुए जो अन्वय (अभेद) और भेद ( व्यतिरेक ) का ज्ञान होता है उससे प्रसिद्ध होनेवाले सामान्य और विशेषकी ( हे विमल जिन !) आपके मतमें उसी तरह समग्रता (पूर्णता.) है जिस तरह कि भूतलपर बुद्धि(ज्ञान)लक्षण प्रमाण स्व-पर-प्रकाशक-रूपमें समग्र (पूर्ण-सकलादेशी) है-अर्थात जिस प्रकार सम्यग्ज्ञान-लक्षण प्रमाण लोकमें स्व-प्रकाशकत्व और पर-प्रकाशकत्वरूप दो धर्मोंसे युक्त हुया अपने विषयमें पूर्ण होता है और उसके ये दोनों धर्म परस्परमें विरुद्ध न होकर सापेक्ष होते हैं-स्वप्रकाशकल्वके विना पर-प्रकाशकत्व और पर-प्रकाशकत्वके विना स्व-प्रकाशकत्व बनता ही नहीं-उसी प्रकार एक वस्तुमें विशेषण-विशेष्य-भावसे प्रवर्तमान सामान्य और विशेष ये दो धर्म भी परस्पर में विरोध नहीं रखते, किन्तु अविरोधरूपसे सापेक्ष होते हैं--सामान्य के विना विशेष और विशेषके विना सामान्य अपूर्ण है अथवा यो कहिये कि बनता ही नहीं-और इसलिये दोनाके मलसे ही वस्तुमें पूर्णता पाती है।' विशेष्य-बाच्यस्य विशेषणं वचो ___ यतो विशेष्यं विनियम्यते च यत् ।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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