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समन्तभद्र-भारता
श्रीअभिनन्दन-जिन-स्तवन
गुणाऽभिनन्दादभिनन्दनो भवान् दया-वधूं क्षान्ति-सखीमशिश्रियत् । समाधि-तन्त्रस्तदुपोपपत्तये द्वयेन
नैग्रन्थ्य-गुणेन चाऽयुजत् ॥१॥ ___(हे अभिनन्दन जिन !) गुणोंकी अभिवृद्धिस-अापके जन्म लेने ही लोकमें सुख-सम्पत्यादिक गुणोंके बढ़ जानेसे-आप 'अभिनन्दन इस सार्थक संज्ञाको प्राप्त हुए हैं। आपने क्षमा-सखीवाली दयावधूको अपने आश्रयमें लिया है-दया और क्षमा दोनोंको अपनाया है
और समाधिके-शुक्लध्यानके-लक्ष्यको लेकर उसकी सिद्धिक लिये आप उभय प्रकारके निर्ग्रन्थत्वके गुणसे युक्त हुए हैंआपने बाह्य-आभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग किया है।'
अचेतने तत्कृत-बन्धजेऽपि च ममेदमित्याभिनिवेशिक-ग्रहात् । प्रभंगुरे स्थावर-निश्चयेन च
क्षतं जगत्तत्त्वमजिग्रहद्भवान् ॥२॥ 'अचेतन-शरीरमें और शरीर-सम्बन्धसे अथवा शरीरके । साथ किया गया आत्माका जो कर्मवश बन्ध है उससे उत्पन्न होने | वाले सुख-दुःखादिक तथा स्त्री-पुत्रादिकमें 'यह मेरा है-मैं इसका ।