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________________ स्वयम्भू-स्तोत्र ( 'बन्ध, मोक्ष, बन्ध और मोक्षके कारण, बद्ध और मुक्त तथा मुक्तिका फल, इन सब बातों की व्यवस्था हे नाथ! आप स्याद्वादीअनेकान्तदृष्टि मत में ही ठीक बैठती है, एकान्तदृष्टियों केसर्वथा एकान्तवादियोंके मतों में नहीं । अतएव आप ही 'शास्ता' - तत्त्वोपदेष्टा-- हैं । दूसरे कुछ मतोंमें ये बातें जरूर पाई जाती हैं, परन्तु कथनमात्र हैं, एकान्त-सिद्धान्तको स्वीकृत करनेसे उनके यहाँ बन नहीं सकतीं; और इसलिये उनके उपदेष्टा ठीक अर्थ में 'शास्ता' नहीं कहे जा सकते ।' 7 शक्रोऽप्यशक्तस्तव पुण्यकीर्ते : स्तुत्यां प्रवृत्तः किमु मादृशोऽज्ञः । तथापि भक्त्या स्तुत-पाद-पद्मो ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चैः ||५|| (१५) ११ ! ' हे आर्य ! - गुणों तथा गुणवानोंके द्वारा सेव्य शम्भव जिन ! - आप पुण्यकीर्ति हैं -- आपकी कीर्ति ख्याति तथा जीवादि पदार्थों का कीर्तन - प्रतिपादन करनेवाली वाणी पुण्या - प्रशस्ता है --निर्मल है --, आपकी स्तुति में प्रवृत्त हुआ शक्र - अवधिज्ञानादिकी शक्तिसे सम्पन्न इन्द्र--भी अशक्त रहा है — पूर्णरूपसे स्तुति करने में समर्थ नहीं हो सका है, फिर मेरे जैसा अज्ञानी - अवधि आदि विशिष्टज्ञानरहित प्राणीतो कैसे समर्थ हो सकता है ? परन्तु असमर्थ होते हुए भी मेरे द्वारा आपके पदकमल भक्तिपूर्वक — पूर्णअनुरागके साथ ---- -स्तुति किये गये हैं । (ः) आप मुझे ऊँचे दर्जेकी शिवसन्तति प्रदान करें अर्थात् मेरे लिये ऊँचे दर्जेकी शिवसन्तति — कल्याणपरम्परा—देय - मैं उसको प्राप्त करनेका पात्र हूँ, अधिकारी हूँ ।' + 'देया शिवतातिरुच्चैः', यह पाठ अधिक संगत जान पड़ता है ।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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