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________________ स्वयम्भू-स्तान हूँ' इस प्रकारके अभिनिवेश ( मिथ्या अभिप्राय ) को लिये हुए होनेसे तथा क्षणभंगुर पदार्थोंमें स्थायित्वका निश्चय कर लेनेके कारण जो जगत् नष्ट होरहा है — आत्महित-साधनसे विमुख होकर अपना कल्याण कर रहा है— उसे (हे अभिनन्दन जिन !) आपने तरका ग्रहण कराया है—जीवादि-तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपको बतलाकर सन्मार्ग-पर लगाया है।' क्षुदादि-दुःख-प्रतिकारतः स्थितिर्न चेन्द्रियार्थ - प्रभवाऽल्प- सौख्यतः । ततो गुणो नास्ति च देह - देहिनो - रितीदमित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत् || ३ || 'धादि- दुखों के प्रतिकारसे - भूख-प्यास यादिकी वेदनाको मिके लिये भोजन - पानादिका सेवन करनेस — और इन्द्रियविषय-जनित स्वल्प सुखके अनुभव से देह और देहधारीका सुखपूर्वक सदा अवस्थान नहीं बनता - थोडी ही देरकी तृप्तिके बाद भूख-प्यासादिककी वेदना फिर उत्पन्न होजाती है और इन्द्रिय-विषयोंके सेवनकी लालसा अग्निमें ईंधन के समान तीव्रतर होकर पीडा उत्पन्न करने लगती है । ऐसी हालत में क्षुधादिः दुखों के इस क्षणस्थायी प्रतीकार और इन्द्रियविषय-जन्य स्वल्प-सुखके सेवन से न तो वास्तव में इस शरीरका कोई उपकार बनता है और न शरीरधारी आत्माका ही कुछ भला होता है: इस प्रकारकी विज्ञापना हे भगवन ! आपने इस (भ्रमके चक्कर में पड़े हुए) जगनको की है— उसे तत्त्वका ग्रहण कराते हुए रहम्यकी यह सब बात समझाई है, जिससे ग्रामक्ति छूट कर परम कल्याणकारी अनासक्त योगकी ओर प्रवृत्ति होमके ।' ܀܀܀܀܀܀܀ܪܟܝ
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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