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स्वयम्भू-स्तोत्र -
विहाय यः सागर-वारि-वाससं वधूमिवेमां वसुधा-वधू सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान्
प्रभुः प्रववाज सहिष्णुरच्युतः ॥३॥ 'जो मुमुक्षु थे-मोक्ष-प्राप्तिकी इच्छा रखनेवाले अथवा संसार| समुद्रसे पार उतरनेके अभिलाषी थे--, आत्मवान् थे-इन्द्रियोंको ।
स्वाधीन रखने वाले आत्मवशी थे--, और ( इसलिये) प्रभु थे-- स्वतंत्र थे। जिन (विरक्त हुए) इक्ष्वाकु-कुलके आदिपुरुषने, सती
वधूको-अपने ऊपर एक निष्ठासे प्रेम रखनेवाली सुशीला महिलाको-- है और उसी तरह इस सागर-वारि-बसना वसुधावधूको-सागरका
जल ही है वस्त्र जिसका ऐसी स्वभोग्या समुद्रान्त पृथ्वीकोभी, जो कि
(युगकी आदिमें ) सती-सुशीला थी-अच्छे सुशील पुरुषोंसे श्राबाद ! थी--, त्याग करके दीक्षा धारण की। ( दीक्षा धारण करनेके !
अनन्तर ) जो सहिष्णु हुए-भूख-प्यास श्रादिकी परीषहोंसे अजेय रहकर उन्हें सहनेमें समर्थ हुए--, और ( इसीलिये ) अच्युत रहे
अपने प्रतिज्ञात (प्रतिज्ञारूप परिणत ) व्रत-नियमोसे चलायमान नहीं। * हुए। ( जबकि दूसरे कितने ही मातहत राजा. जिन्होंने स्वामिभक्तिसे .. 1. प्रेरित होकर आपके देखादेखी दीक्षा ली थी, मुमुक्षु, आत्मवान् , प्रभु । तथा सहिष्णु न होनेके कारण, अपने प्रतिज्ञात व्रतोसे च्युत और भ्रष्ट होगये थे)।'
स्व-दोष-मूलं स्व-समाधि-तेजसा निनाय यो निर्दय-भस्मसात्क्रियाम् ।