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________________ . समन्तभद्र भारती । थे--प्राणियोंके हितकी-संसारी जीवोंके आत्मकल्याणकी भावना एवं परिणतिसे युक्त साक्षात् .भूतहितकी मूर्ति थे, सम्यग्ज्ञान! की विभूतिरूप-सर्वज्ञतामय-(अद्वितीय ) नेत्रके धारक थे, और ! अपने गुणसमूहरूप-हाथोंसे अबाधितत्त्व और यथावस्थित अर्थप्रकाशकत्व आदि गुणों के समूहवाले वचनोंसे--अन्धकारको-जगतके भ्रान्ति एवं दुःख-मूलक अज्ञानको दूर करते हुए, पृथ्वीतलपर ऐसे शोभायमान होते थे जैसे कि अपनी अर्थ-प्रकाशकत्वादिगुणविशिष्ट किरणोंसे रात्रिके अन्धकारको दूर करता हुआ पूर्णचन्द्रमा सुशोभित होता है।' प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्धृतोदयो ममत्वतो निर्विविदे. विदांवरः ।।२।। 'जिन्होंने, ( वर्तमान अवसर्पिणी कालके ) प्रथम प्रजापतिके रूपमें देश, काल और प्रजा-परिस्थितिके तत्त्वोंको अच्छी तरहसे जानकर, जीनेकी-जीवनोपायको जाननेकी-इच्छा रखनेवाले प्रजाजनोंको सबसे पहले कृषि आदि कर्मों में शिक्षित किया- उन्हें खेती करना, शस्त्र चलाना, लेखन-कार्य करना, विद्या शास्त्रोंको पढ़ना, दस्तकारी करना तथा बनज-व्यापार करना सिखलाया और फिर हेयो- । पादेय तत्त्वका विशेष ज्ञान प्राप्त करके आश्चर्यकारी उदय (उत्थान अथवा प्रकाश) को प्राप्त होते हुए जो ममत्वसे ही विरक्त होगयेप्रजाजनों, कुटुम्बीजनों, स्वशरीर तथा भोगोंसे ही जिन्होंने ममत्व-बुद्धि । (आसक्ति) को हटा लिया। और इस तरह जो तत्त्ववेत्ताओंमें ! श्रेष्ठ हुए।'
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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