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________________ ' समन्तभद्र-भारती जगाद तत्त्वं जगतेऽर्थिनेऽजसा बभूव च ब्रह्म-पदाऽमृतेश्वरः ॥४॥ ( तपश्चरण करते हुए) जिन्होंने अपने आत्मदोषोंके-आत्मसम्बन्धी राग-द्वेष-काम-क्रोधादिविकारोंके-मूलकारणको-घातिकर्मचतुष्टयको-अपने समाधि-तेजसे-शुक्लध्यानरूपी प्रचण्ड अग्निसे, निर्दयतापूर्वक पूर्णतया भस्मीभूत कर दिया। तथा ( ऐसा करनेके अनन्तर ) जिन्होंने तत्त्वाभिलाषी जगतको तत्त्वका सम्यक उपदेश दिया-जीवादि तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप बतलाया । और (अन्तको) ! जो ब्रह्मपदरूपी अमृतके-स्वात्मस्थितिरूप मोक्ष-दशामें प्राम होनेवाले अविनाशी अनन्त सुखके-ईश्वर हुए-स्वामी बने ।' म विश्व-चचुषमोऽर्चितः सतां समग्र-विद्याऽऽत्म-वपुर्निरञ्जनः । पुनातु चेतो मम नाभि-नन्दनी जिनोऽजित-क्षुल्लक-वादि-शासनः ॥॥ (इस तरह ) जो सम्पूर्ण कर्म-शत्रुओंको जीतकर 'जिन' हुए, जिनका शासन क्षुल्लकवादियोंके-अनित्यादि सर्वथा एकान्त पक्षका ! प्रतिपादन करनेवाले प्रवादियोंके द्वारा अजेय था. और जो सर्वदर्शी हैं. सर्व विद्यात्मशरीरी हैं--- पुद्गलपिण्डमय शरीरके अभाव में जीवाटि , सम्पूर्ण पदार्थों को अपना मानात् विषय करनेवाली केवलज्ञानरूप पूर्ण- । विद्या ( सर्वज्ञता ) ही जिनका अान्मशरीर है--, जो सत्पुरुषोंसे पृजित हैं, और निरञ्जन पदको प्राप्त हैं-ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि + 'जिन-क्षुल्लक-वादि-शासनः' इति पाठान्तरम् ।
SR No.010650
Book TitleSwayambhu Stotram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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