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अध्यात्म-रहस्य आशाधरजीने अपने अनगारधर्मामृतके प्रथम पद्यकी स्वो० टीकामें इसे पद्यरूपसे ही 'भवति चाऽत्र पद्यम्' इस वाक्य के साथ उद्धृत किया है और इसमें 'ऽनुग्राही' पद का ही प्रयोग किया है। उनके इस उद्धरण से स्पष्ट है कि यह पद्य उनका नहीं है--किसी दूसरे ग्रन्थका पद्य है।
जान पड़ता है यह लक्षणात्मक पद्य ४४ वे पद्यमें प्रयुक्त 'मन' पद अथवा अगले पद्यमें प्रयुक्त हुए 'द्रव्यमना' पदके वाच्यको स्पष्ट करनेके लिये किसीने टिप्पणीके तौर पर ग्रन्थके हाशिये पर उद्धृत किया होगा और वह प्रतिलेखककी असावधानीसे मूलग्रन्थका अंग समझा जाकर अन्यमें प्रविष्ट होगया और उस पर गलतीसे पद्य-नम्बर भी पड़ गया है । उसीके फलस्वरूप अगले पद्योंके क्रमाङ्कोंमें एक-एक अंककी वृद्धि होकर अन्तका ७२ वॉ. पद्य ७३. नवम्बरका बन गया है । अस्तु यह ग्रन्थ अजमेरके भट्टारकीय शास्त्रभंडारके एक गुटकेमें, जिसके पत्रोंकी स्थिति अति जीर्ण है, ७ पत्रों पर (२५२ से २५६ तक) अंकित है और प्रायः ४०० वर्षका लिखा हुआ जान पड़ता है। पत्रोंकी लम्बाई तथा चौड़ाई समान ६॥ इंच और प्रतिपत्र पंक्तिसंख्या प्रायः २६ है। हाशिये पर संस्कृत-टिप्पणी भी अंकित है।
प्रस्तुत अन्य अपने विषयका एक बड़ा ही सुन्दर एवं