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प्रस्तावना
धरजी यद्यपि अपनी इस कृतिको धर्मामृतका १८ वाँ अध्याय करार देकर उसीका चूलिकादिके रूपमें एक अंग बनाना चाहते थे, परन्तु मूलग्रन्थ-प्रतियों और सांगारधर्मामृतकी टीकाके भी अधिक प्रचारमें आजाने आदि कुछ कारणोंके वश वे वैसा नहीं कर सके और इसलिये वादको अनगार-धर्मामृतकी टीकामें उन्होंने उसे 'अध्यात्म-रहस्य' नाम देकर एक स्वतन्त्र शास्त्रके रूपमें उसकी घोषणा की है। __ इस ग्रन्थकी पद्यसंख्या ७२ है, जब कि उक्त ग्रन्थप्रतिमें वह ७३ दी हुई है। ४४ वें पद्यके वाद निम्न वाक्य नं० ४५ डाल कर लिखा हुआ है, जिसमें भावमन और द्रव्यमनका लक्षण दिया है
"गुण-दोष-विचार-स्मरणादिप्रणिधानमात्मनो मावमनः । तदभिमुखस्योस्यैवाऽनुपाहिपुद्गलोच्चयो द्रव्यमनः ।" इस वाक्यको पहले गधरूपमें समझ लिया गया था और तदनुसार अनेकान्त (वर्ष १४) में, 'पुराने साहित्यकी खोज' शीर्षकके नीचे (पृष्ठ १३) प्रकट भी किया गया था, परन्तु वादको मालूम हुआ कि यह तो पद्य है और इसके छन्दका नाम 'आर्यागीति है, जिसके विपम चरणोंमें १२ और समचरणोंमें २० मात्राएँ होती हैं। इस दृष्टिसे चौथे चरणमें प्रयुक्त 'ऽनुपाहि' शब्द 'ऽनुग्राही' पद होना चाहिये, जो समझने की भूलमें सहायक हुआ है। पं०