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अध्यात्म - रहस्य
इत्याशाघर - विरचित धर्मामृतनाम्नि सूक्ति-संग्रहे योगोद्दीपनयो नामाष्टादशोऽध्यायः ।
ग्रन्थके इस समाप्ति-सूचक पुष्पिका - वाक्यसे यह भी मालूम होता है कि पं० आशाधरजीने इसे प्रथमतः अपने धर्मामृतग्रन्थके अठारहवें अध्यायके रूपमें लिखा है । धर्मामृतमें अनगार धर्मामृतके नौ और सागारधर्मामृतके आठ अध्याय हैं । सागारधर्मामृतके अन्तिम अध्यायमें उसे क्रमशः सत्रहवां अध्याय प्रकट किया है । यह १८ वॉ अध्याय, जो उसके पश्चात् होना चाहिये था, अभी तक धर्मामृत किसी भी संस्करणके साथ प्रकाशित नहीं हुआ और न उसकी किसी लिखित ग्रन्थ- प्रतिके साथ जुड़ा ही मिला है । जान पड़ता है आशाधरनीने इसे सागारधर्मामृतकी टीकाके भी बाद बनाया है, जो कि विक्रम संवत् १२६६ पौषकृष्ण सप्तमीको बनकर समाप्त हुई है; क्योंकि उस टीकाकी प्रशस्तिमें इस ग्रन्थका कोई नामोल्लेख तक न होकर वादको कार्तिक सुदि पंचमी सं० १३०० में वनकर पूर्ण हुई अनगार- धर्मामृतकी टीकामें इसका उक्त उल्लेख पाया जाता है । और इससे यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रंथकी रचना उक्त दोनों टीका - समयोंके मध्यवर्ती किसी समय में हुई है और वह मूल 'धर्मामृत' ग्रन्थसे कई वर्ष बादकी - कृति है । साथ ही, यह भी पता चलता है कि पं० आशा