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________________ आश्चर्य ५३ आपको दुःख दे सके। किसी की ताकत नहीं कि आपको सुख दे सके। सुख और दुख के सम्पूर्ण उत्तरदायी तुम स्वय हो। स्वय के कर्म के प्रभाव से सुख और दुःख की अनुभूतियाँ जीवन में प्रकट होती हैं और इन अनुभूतियों को समझकर उसके साथ सामञ्जस्य स्थापित करना जीवन की कला है। दुख का कारण दूसरे को मानना यह हमारी सबसे बड़ी भ्रान्ति है। कोई भी व्यक्ति, परिस्थिति, वस्तु या अवस्था हमारे सुख-दुःख के कारण नही हो सकते हैं। अनुकूलता का अनुभव सुख है और प्रतिकूलता का अनुभव दुःख है, परन्तु यह तव जब हमारा अनुभव बाह्य पर्यावरण तक आश्रित हो। अनुभव जव निजस्वरूप का भोक्ता हो जाता है, सुख-दुःख का द्वन्द्व टूट जाता है, भ्रान्ति और भय मिट जाता है। माने जाने वाले सुख-दुःख के कारण हम स्वय ही है, हमारे कर्म हैं। शक्रेन्द्र, बेड़ी के वधन इसलिए आये क्योंकि मेरे साथ कर्मों के वधन निहित थे। जहाँ कर्मों के वधन हैं वही वेड़ी के वधन हैं, जैसे ही कर्मों के वधन टूटते हैं वैसे ही वेड़ी के वधन अपने आप टूटते जाते हैं। यदि आप मेरी सेवा ही करना चाहते हो, कुछ तोड़ना ही चाहते हो तो बेड़ी के वधन नहीं, मेरे कर्मों के बधन तोड़ दीजिए। शफ्रेन्द्र ने कहा-भन्ते । ससार मे ऐसा कौनसा व्यक्ति है जो किसी के कर्म के वधन को तोड़ सकता हो? क्या कोई व्यक्ति, क्या कोई तत्त्व ऐसा आपने देखा है ? किसी के भी कर्मों को कोई भी नहीं तोड़ सकता। स्वय के कर्मों के बधन स्वय को ही तोड़ने पड़ते हैं। भन्ते । मैं देड़ी के वधन को तोड़ सकता हूँ, कर्मों के बधनों को तोड़ने में समर्थ नहीं हूँ। आचार्यश्री ने कहा-शक्रेन्द्र । तुम जहाँ से आये वहीं लौट जाओ। मुझे तुम्हारी किसी भी प्रकार की सेवा-सहायता की आवश्यकता नहीं है। मैं उनका ध्यान कर रहा हूँ, मैं उनकी शरण मे जा रहा हूँ जिनकी शरण में जाने से, जिन की भक्ति करने से मेरे कर्मों के दधन टूट सकते हैं। उनके ध्यान की एकाग्रता में सर्व प्रकार की घटनाएँ मुझमें समभाव लाती है। जहाँ विषमता है, वहाँ कर्म है। जैसे ही विषमता टूटेगी, समता आयेगी, वहाँ पर कर्म का क्षय होना प्रारम्भ हो जायेगा। कर्मक्षय की बहुत बड़ी कला वीतराग परमात्मा के प्रति समर्पण और समता की है। जहाँ विषमता है, वहा कर्म है। जहाँ समता है वहाँ कर्म का क्षय है। शकेन्द्र आश्चर्यचकित होकर स्वस्थान लोट पड़े। इन आश्चयों को अब हम क्रम से देखेंगे१ पाला आश्चर्य आचार्यश्री पर देड़ी के दधन आना। २ दूसरा आश्चर्य देड़ी के दधन तोड़ने का प्रयास नहीं करना। ३ तीसरा आश्चर्य किसी दैवीय चमत्कार को दताने के लिये स्तोत्र का सर्जन नहीं फरना। __४ चोया आश्चर्य भादनाओ को उभारकर अभियक्त करना।
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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