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________________ ५४ भक्तामर स्तोत्र - एक दिव्य दृष्टि ५. पाँचवॉ आश्चर्य परमात्मा के साथ तात्त्विक सम्बन्ध स्थापित करना और उनके प्रभाव से बेड़ियो के बधनो का टूटना। कर्म पुद्गल द्रव्य है, आत्मा चेतन द्रव्य है। इस चेतन द्रव्य के ऊपर पुद्गल द्रव्य ने अपना अधिकार जमाया है, अपना प्रभाव जमाया है, लेकिन जैसे-जैसे परमात्मा का प्रभाव आता गया कर्म का प्रभाव क्षय होता गया और जैसे कर्म का प्रभाव हटता गया परमात्मा का प्रभाव पूरित होने लगा, जिसे हम आश्चर्य मानते हैं। आचार्यश्री के लिए वह कोई आश्चर्य नही है। इसे सहज और स्वाभाविक मानकर आचार्यश्री ने परमात्मा के साथ तात्त्विक सबध के द्वारा अपने जीवन मे किस प्रकार परिवर्तन किया ? किस प्रकार आत्मा अपनी वर्तमान स्थिति मे आगे बढ़ कर प्रगति करता है। इसे हम श्लोक के माध्यम से समझेगे नात्यद्भुत भुवन-भूषण भूतनाथ!, भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्त । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा, भूत्याश्रित य इह नात्मसम करोति? ॥१०॥ भुवनभूषण - हे विश्व के शृगार। भूतनाथ - हे जगन्नाथ-हे प्राणियो के स्वामिन् । भूतैः - विद्यमान गुणैः - गुणो के द्वारा भवन्तम् - आपकी/आपको अभिष्टुवन्त. - स्तुति करनेवाले/प्रीति करने वाले/भक्ति करनेवाले - पृथ्वी पर भवत - आपके - सदृश, समान भवन्ति - हो जाते हैं अति - अधिक, बहुत अद्भुतम् - आश्चर्यजनक, विचित्र, विलक्षण - नहीं है - अथवा - निश्चय से - उस क्या मुवि तुल्या किम्
SR No.010615
Book TitleBhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1992
Total Pages182
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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